मैं ,मैं हूँ।समझी ,कि नहीं?
-और मैं क्या हूँ,पता है?
-जरूर,पर हवाला मेरा ही दिया जाता है,तेरा नहीं।
-वो बात दीगर है।
-सच है।
-है,पर दिखने और होने में फर्क होता है।
-मतलब?
-तू समझता है।
-अरी, मेरे बिना तो सरकारें तक नहीं चलतीं, हिल जाती हैं।
-वही तो।तू पाला बदलता रहता है,मैं तिलमिलाती रहती हूँ।
-तो तुझे क्यों मलाल होता है?
-क्योंकि तू भौतिकता का कायल हो सकता है,हो भी जाता है।
-और तू?
-मैं तो भाव निरूपित करती हूँ।भाववाचक हूँ',विश्वसनीयता बोली।
विश्वास का मुँह लाल हो गया।रंगत गुस्से की थी या लज्जा की,वह तय नहीं कर पा रहा था।
"" मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
बहुत बहुत आभार जनाब उस्मानीजी।नव वर्ष की शुभ कामनाएं।
आदरणीय सुरेन्द्र जी,आपका शुक्रिया।नव वर्ष की मंगलकामनाये।
वाह! जाते साल और नव वर्ष के आगाज़ पर 'विश्वास' और ' विश्वसनीयता' के कथनोपकथन में उन दोनों को ही परिभाषित करते हुए देश और जीवन का यथार्थ चित्रित करती बेहतरीन विचारोत्तेजक सारगर्भित लघुकथा के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब मनन कुमार सिंह साहिब। दरहक़ीक़त दिखने और होने में फर्क होता है। हार्दिक आभार। नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
आद0 मनन कुमार जी सादर अभिवादन। बढ़िया लघुकथा लिखी आपने। नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओ संग बहुत बहुत बधाई
आभार एवं नव वर्ष की मंगलकामनाये आरिफ भाई।
आदरणीय मनन कुमार जी आदाब,
सशक्त लघुकथा । बधाई स्वीकार करें ।
नववर्ष की शुभकामनाएँ !
बहुत बहुत आभार आदरणीय तेजवीर जी।नवल वर्ष मंगलमय हो!
हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह जी।बेहतरीन प्रस्तुति। एक कड़वी सच्चाई से रूबरू कराती रचना।
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