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माँ के हाथों से जब खाया जाता है (ग़ज़ल)

अरकान-फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फ़ा

ऐसे रिश्ता यार निभाया जाता है
वक़्त पड़े तो ग़म भी खाया जाता है ।।

भूख लगी हो और न हो कुछ खाने को
बच्चे का फिर दिल बहलाया जाता है।।

लाख छुपाने से भी जब ये छुप न सके
फिर क्यों यारो इश्क़ छुपाया जाता है।।

तब होती है घर में बरकत ही बरकत
मुफ़लिस को महमान बनाया जाता है ।।

रुखा सूखा खाना लज़्ज़त दार लगे
माँ के हाथों से जब खाया जाता है ।।

चुंगल में सेठों के जो इक बार फँसे
सदियों तक फिर कर्ज चुकाया जाता है ।।

फूलों की ख़ुशबू का कोई जुर्म नहीं
भवरों पर इल्ज़ाम लगाया जाता है ।।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sushil Sarna on January 8, 2018 at 7:12pm

फूलों की ख़ुशबू का कोई जुर्म नहीं
भवरों पर इल्ज़ाम लगाया जाता है ।।

वाह आदरणीय  सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप जी बहुत ही सुंदर और भावपूर्ण अशआर कहे हैं आपने। मधुर भाव गंध से सुवासित इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सर।

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