गजल
1222 1222 1222 1222
बताना है सभी को हम हलाली का ही खाते हैं
कि है जो कर्ज़ माटी का लहू देकर चुकाते हैं
सियासत भी है अच्छी शय जिसे अक्सर बुरा माना
भले कुछ रहनुमा भी हैं जो सबके काम आते हैं
दिशा दक्षिण में सर्दी चल पड़ी मधुमास आते ही
चमन में गुल महक उट्ठे भ्रमर भी गुनगुनाते हैं
समझना है जरा मुश्किल भरोसा किस पे करलें हम
कभी अपने उठाते हैं कभी अपने गिराते हैं
सलामत किस तरह दुनिया रहेगी आज 'राणा' बोल
भुलाकर लोग यकजहती यहाँ नफ़रत बढ़ाते हैं
मौलिक /अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्षमण धामी जी हौंसलाफ़ज़ाई के लिए सादर आभार
आदरणीय विजय निकोर सर सादर आभार उत्साहवर्धन के लिए
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ भाई जी हौंसलाफ़ज़ाई के लिए तहेदिल शुक्रिया
आदरणीया रक्षिता सिंह जी हौंसलाफ़ज़ाई के लिए तहेदिल शुक्रिया
आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी,हौंसलाफ़ज़ाई के लिए सादर आभार
आदरणीय तेजवीर सिंह जी हौंसलाफ़ज़ाई के लिए तहेदिल शुक्रिया
आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी,सादर हार्दिक आभार,अनुमोदन एवं उत्साहवर्धन के लिए
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल कही आदरणीय..सादर
आ. भाई सतविंद्र जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
गज़ल अच्छी लगी। हार्दिक बधाई, आ० साविन्द्र जी।
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