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बढ़े तो दर्द अक्सर टूटता है
अबस आँखों से झर कर टूटता है
गुमाँ ने कस लिया जिस पर शिकंजा
भटकता है वो दर-दर,टूटता है
नहीं गम घर मेरे आता अकेले
कि वो तो कोह बनकर टूटता है
सुने गर चीख बच्चे की तो देखो
रहा जो सख़्त पत्थर टूटता है
बजें बर्तन हमेशा साथ रह कर
भला इनसेे कभी घर टूटता है
मौलिक अप्रकाशित
अबस:बेबस
कोह:पहाड़
Comment
आदरणीय विजय निकोर सर सादर हार्दिक आभार उत्साहवर्धन के लिए।
आदरणीय बृजेश ब्रज जी हौंसलाफ़ज़ाई के लिए सादर हार्दिक बधाई
खूबसूरत गज़ल के लिए हार्दिक बधाई, सतविन्द्र जी।
खूब ग़ज़ल हुई आदरणीय सतविंद्र जी..बधाई
आदरणीय धामी जी सादर हार्दिक आभार।
सादर आभार आदरणीय तेजवीर सिंह जी,उत्सावर्धन हेतु
आदरणीय सलीम रज़ा रेवा जी अनुमोदन एवं उत्साहवर्धन कब लिए तहेदिल शुक्रिया।
बहुत खूब हार्दिक बधाई ।
हार्दिक बधाई आदरणीय सतविंदर जी।बेहतरीन गज़ल।
गुमाँ ने कस लिया जिस पर शिकंजा
भटकता है वो दर-दर,टूटता है
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