122 122 122 122
.
सियासत बिसातें बिछाने लगी है
चुनावी हवा सरसराने लगी है...
.
जगा फिर से मुद्दा ये पूजा घरों का
दिलों में ये नफरत बढ़ाने लगी है।
चुनावी हवा.....
.
यहाँ बाँट डाला है रंगो में मजहब
बगावत की आंधी सताने लगी है।
.
कहीं नाम चंदन कहीं चाँद दिखता
ये लाशें जमीं पर बिछाने लगी है
.
नही बात होती है अब एकता की
हमारी उमीदें घटाने लगी है
.
क्युँ इन्सां हुआ जानवर से भी बदतर
हमें शर्म ख़ुद से ही आने लगी है
.
ये क्यों मौन बैठे है आदर्शवादी
के मिट्टी वतन की बुलाने लगी है
.
जहाँ झूठे वादों का बहता है दरिया
जमीं बोझ से चरमराने लगी है
.
सियासत बिसातें बिछाने लगी है
चुनावी हवा सरसराने लगी है...
.
मौलिक एवं अप्रकाशित
अलका 'कृष्णांशी'
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी ,नमस्कार ,उत्साहवर्धन करती टिप्पणी के लिए धन्यवाद ।सादर।
हार्दिक बधाई...
जी सर अब सही है... मुझे नहीं सूझ रहा था, अभी एडिट करती हूँ। मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय Samar Kabeer ji ...... सादर।
आदरणीय नादिर खान जी ,नमस्कार ,उत्साहवर्धन करती टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद । क्युँ का क्यूँ हो गया टाइपिंग मिस्टेक है सुधार करती हूँ। सादर।
आपने जो मिसरे लिखे हैं वो लय में नहीं हैं,इन मिसरों को यूँ कर सकती हैं:-
'हमारी उमीदें घटाने लगी है'
'हमें शर्म ख़ुद से ही आने लगी है'
अदरणीया अल्का जी उम्दा गज़ल के लिए बधाई स्वीकारें ... 6 वें शेर में क्यूँ इन्सां 122 नहीं हो सकता और शर्म खाने के विषय में आदरणीय समर साहब पहले ही बता चुकें है..... फिर प्रयास कीजिये शुभकामनाओं के साथ .......
"इंसानियत को शर्म आने लगी है"
वैसे इसमें मुझे लय गड़बड़ लग रही है
आदरणीय Samar Kabeer ji ,नमस्कार , प्रयास को समय देने व् मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार ।
"उम्मीद अम्न की ये घटाने लगी है "
"इंसानियत को शर्म आने लगी है"
यदि अब सही हो तो एडिट किया जाए ?
.... .सादर।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी ,नमस्कार ,उत्साहवर्धन करती टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद ।सादर।
आदरणीय Mohammed Arif ji ,नमस्कार ,उत्साहवर्धन करती टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद
आपने सही कहा, पहले भी सियासत ने ही देश के टुकड़े किये थे आज भी वही चल रहा है आम जनता की उम्मीदें सिर्फ भटक रहीं हैं इस पार्टी से उस पार्टी तक।सादर।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online