(फाइलातुन -फइलातुन- फइलातुन-फेलुन )
दूर माशूक़ से आशिक़ कहाँ जाना चाहे |
कूचये यार में वो अपना ठिकाना चाहे |
मैं ही आया हूँ नहीं सिर्फ़ परखने क़िस्मत
उन को तो अपना हर इक शख्स बनाना चाहे |
थाम के हाथ जो देता हो हमेशा धोका
कौन उस शख्स से फिर हाथ मिलाना चाहे |
फितरते शमअ जलाना है तअज्जुब है मगर
जान परवाना वहाँ फिर भी लुटाना चाहे |
मुफ़लिसी के हैं यह मारे हुए ज़ालिम वरना
तेरी दहलीज़ पे सर कौन झुकाना चाहे |
दरमियाँ अपने रहे दोस्ती यूँ ही क़ायम
मेरे महबूब भला कब यह ज़माना चाहे |
हर नज़र मुझ पे ही तस्दीक़ लगी है वरना
उनके चहरे से नज़र कौन हटाना चाहे |
(मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
जनाब राम अवध साहिब ,ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
जनाब नीरज साहिब ,ग़ज़ल को पसंद करने और आपकी हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
हर शेर खूबसूरत क्या खूब ग़ज़ल है।
मुबारकबाद कुबूल फरमायें।
ओह्ह क्या बात है आदरणीय tasdiq भाई आखिरी शेर ने बहुत ही कातिल है कितनी दाद दूँ समझ नही आता ।
मुहतरम जनाब विजय साहिब ,आपकी खूबसूरत प्रतिक्रिया ,और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
जनाब सलीम रज़ा साहिब ,ग़ज़ल में आपकी सुन्दर प्रतिक्रिया ,शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
जनाब लक्ष्मण धामी साहिब ,आपकी ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
//मुफ़लिसी के हैं यह मारे हुए ज़ालिम वरना
तेरी दहलीज़ पे सर कौन झुकाना चाहे |//
भाई तस्दीक अहमद जी, गज़ल बार-बार पढ़ी... दिल से बधाई।
मैं ही आया हूँ नहीं सिर्फ़ परखने क़िस्मत
उन को तो अपना हर इक शख्स बनाना चाहे |.... वाह
वाह वाह मुरस्सा ग़ज़ल... हुई है जनाब तस्दीक साहब वाह वाह क्या कहने हर शेर के लिए मुबारक़बाद..
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