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ग़ज़ल नूर की -खेल सारे, हर तमाशा छोड़ कर

२१२२/२१२२/२१२
.
खेल सारे, हर तमाशा छोड़ कर
सब को जाना है ये मेला छोड़ कर. 
.
एक क़िस्सा-गो अचानक मर गया
अपने कुछ क़िरदार ज़िंदा छोड़ कर.
.
था बहुत जिन को समुन्दर पर यकीं
अब वो पछताते हैं दरिया छोड़ कर.
.
मोड़ कोई इक ग़लत मुडने के बाद
याँ तलक पहुँचे हैं रस्ता छोड कर.
.
उस ख़ुदा का मत दिया कर वास्ता  
जा चुका जो कब से दुनिया छोड़ कर.
.
बात मेरी मान कर तो देखिये
आप अपना ये रवैया छोड़ कर.
.
चाँद तारों में लो वापस आ गये
“नूर साहब” जिस्म जलता छोड़ कर.
.
निलेश "नूर"
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Shyam Narain Verma on February 22, 2018 at 5:43pm
वाह i बहुत सुन्दर, हार्दिक बधाई l सादर
Comment by Mohammed Arif on February 22, 2018 at 8:18am

खेल सारे, हर तमाशा छोड़ कर
सब को जाना है ये मेला छोड़ कर वाह! वाह!!  बहुत ख़ूब ! बहुत ख़ूब!  सच है, एक दिन सबको ये दुनियादारी का तामझाम छोड़कर जाना ही होता है । जगत् नाशवान है । बहुत ही सच्चा शे'र । दिली मुबारकबाद आदरणीय निलेश जी ।

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