अरकान: फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
जब उठी उनकी नज़र, इफ़रात घर जलने लगे।
ख़ुद नहीं हमको ख़बर, किस बात पर मरने लगे।।
आपकी काबिल मुहब्बत, सीख हमको दे गई,
राह में आईं अगर, आफा़त हर सहने लगे।।
यह ज़मीं ज़न्नत नज़र आएगी इक दिन खुद-ब-खुद,
बाप-माँ की हर बशर ख़िदमात गर करने लगे।।
मिल गई इक बार अब नुसरत उसे फिर से वहाँ,
आजकल वो ज़र जिधर ख़ैरात कर चलने लगे।।
मुफ़लिसी उनकी उन्हें किस हाल तक ले जाएगी,
बस यही अब सोचकर बेबात सर फटने लगे।।
बन गया कानून कुदरत का तो फिर मिटना नहीं,
भूल से हो जाए गर बरसात खर उगने लगे।।
इस तरह तन्हाइयाँ भी डस रहीं हैं रात दिन,
'दीप' के अब देखकर हालात डर लगने लगे।।
-प्रदीप कुमार पाण्डेय 'दीप'
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
जनाब समर साहिब!
नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया, आपका कहना जायज़ है, काफिया का चुनाव गलत हुआ, खैर जो हो गया सो हो गया.....
बहरहाल आपका एक बार फिर से शुक्रिया इस खामी की निशानदिही के लिए।
जनाब प्रदीप कुमार पाण्डेय 'दीप' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
पूरी ग़ज़ल में क़ाफ़िया दोष है,मतले के ऊला मिसरे में 'जलने'क़ाफ़िया लिया गया है,जिसमें 'ने' क़ाफ़िया है और हर्फ़-ए-रवी 'ल' लेनिन सानी मिसरे में "मरने" क़ाफ़िया लिया गया है,जो ग़लत है,इसमें 'ने' क़ाफ़िया के साथ हर्फ़-ए-रवी 'र' होने से क़ाफ़िया दोष पैदा हो गया,मतले के ऊला मिसरे के बाद ग़ज़ल के क़वाफ़ी 'पलने''मलने'होना चाहिए थे,जो नहीं हैं ।
क़ाफिये के पहले बार बार आने वाले हर्फ़ (अक्षर) को हर्फ़-ए-रवी खते हैं ।
शुक्रिया! ज़नाब श्याम नारायण वर्मा जी।
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