मुफाइलुन मुफाइलुन मुफाइलुन मुफाइलुन
बिसात-ए-गैर क्या है जब, नदीम कर सका नहीं।
मरीज़-ए-इश्क़ की दवा हकीम कर सका नहीं।।
अदीब से हुए नहीं कुछ एक काम आज तक,
असीर कर गया जिसे फ़हीम कर सका नहीं।।
लिखीं पढ़ीं भले कई, कहानियाँ ज़हान की,
मगर क़सूर क्या रहा अज़ीम कर सका नहीं।।
मिलान चश्म, चश्म और, क़ल्ब, क़ल्ब का हुआ,
कमाल जो हुआ कभी कलीम कर सका नहीं।।
वज़ूद आम, आम और ख़ास, ख़ास का रहा,
जो काम नून कर गया वो मीम कर सका नहीं।।
हज़ार कोशिशें हुईं, जहाँ-जहाँ ज़हान है,
जमाल हो गया मगर नसीम कर सका नहीं।।
अज़ीब दास्तान 'दीप' की रही ज़हान में,
तबादला किया मगर न'ईम कर सका नहीं।।
-प्रदीप कुमार पाण्डेय 'दीप'
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया ज़नाब सुरेंद्र ज़नाब लक्ष्मण धामी साहिब।
सुंदर गजल हुई है, हार्दिक बधाई ।
आद0 प्रदीप कुमार पांडेय जी सादर अभिवादन। बहुत बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल। शैर दर शैर मुबारकवाद कुबूल फरमाएं। सादर
जनाब समर साहिब!
नसीम स्त्रीलिंग है, इसका इल्म मिसरा कहते वक़्त था, लिहाज़ा शेर उसी बिना पर कहा गया है. अलबत्ता आपका इस्लाह काबिले गौर है, ग़ज़ल में शिरकत, हौसला आफज़ाई और आपके इस्लाह के लिए ममनून-ओ-शुक्रगुज़ार हूँ।
जनाब हर्ष महाजन जी!
ग़ज़ल में शिरकत और हौसला आफज़ाई के लिए तहे दिल से शुक्रिया।
जनाब प्रदीप कुमार पाण्डेय 'दीप' जी आदाब,ग़ज़ल अच्छी हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
छटे शैर में 'नसीम' शब्द स्त्रीलिंग है, देखियेग ।
आ. प्रदीप कुमार जी आदाब ।
ख्याल के हिसाब से एक बेहतरीन और अच्छी प्रस्तुती ।
बहर के मुतल्लक गुणीजनो का इंतज़ार ।
सादर
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