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दरमियाँ अब तेरे मेरे क्या रह गया,
फासला तो हुआ पर नशा रह गया ।
उठ चुका तू मुहब्बत में इतना मगर
मैं गिरा इक दफ़ा तो गिरा रह गया ।
ज़ह्र मैं पी गया, बात ये, थी नहीं,
दर्द ये, मौत से क्यों ज़ुदा रह गया ।
मौत से, कह दो अब, झुक न पाऊँगा मैं,
सर झुकाने को बस इक खुदा रह गया ।
टूट कर फिर से बिखरुं, ये हिम्मत न थी,
इस जहाँ को बताता, गिला रह गया ।
खत जो तेरा पढ़ा चश्म-ए-तर हो गए,
बा-वफ़ा था मैं अब बे-वफ़ा रह गया ।
ज़िन्दगी में चलीं आँधियाँ इस कदर,
ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया ।
-- -- ---
मौलिक व अप्रकाशित
हर्ष महाजन
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी प्रोत्साहन हेतु शुक्रिया ।
ग़ज़ल पर उत्साहपूर्ण टिप्पणी के लिये बहुत बहुत शुक्रिया रक्षिता सिंह जी ।
अच्छी गजल हुई है हार्दिक बधाई । शेष गुणी जन बतायेंगे..
आदरणीय हर्ष जी, नमस्कार।
बहुत ही बेहतरीन पंक्तियाँ.....
उठ चुका तू मुहब्बत में इतना मगर
मैं गिरा इक दफ़ा तो गिरा रह गया ।
हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
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