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अगर माँगू तो थोड़ी सी नफ़ासत लेके आ जाना,
मुहब्बत है तो दिल में तुम शराफ़त लेके आ जाना ।
रिवाज़-ओ-रस्म-ए-उल्फ़त को सनम तुम भूल जाना मत,
सफ़र ये आशिक़ी का है नज़ाक़त लेके आ जाना ।
जो दिल तेरा किसी भी ग़ैर के दिल में धड़कता हो,
मगर तुम मेरी ख़ातिर वो अमानत लेके आ जाना ।
वफ़ा के क़त्ल की साज़िश तुम्हारी भूल जाऊँ मैं,
अगर आओ तो अहसास-ए-नदामत लेके आ जाना ।
जो भेजे थे कभी अश्कों से लिखकर तुमको ख़त मैंने,
वो यादों की अमानत हैं सलामत लेके आ जाना ।
यही ख़्वाहिश है इस दिल की रफ़ाक़त हो सलीके से,
जी तुम आओ ज़माने की नज़ाफ़त लेके आ जाना ।
यूँ भी कर देंगे साबित ख़त हमारी बेगुनाही को,
जमानत के लिए उनको अदालत लेके आ जाना ।
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नफ़ासत= कोमलता
मुंतजिर= इंतज़ार
रफ़ाक़त=दोस्ती/नज़दीकियाँ
नज़ाफ़त= शुध्दता
नदामत= पश्चाताप
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय समर जी
इस बेशकीमती इस्लाह का
दिल से बहुत बहुत शुक्रिया ।
सादर ।
4थे शैर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़ जुज़्वी है जो मान्य है,फिर भी इसमें 'भूल जाऊंगा' को "भूल जाऊँ मैं" कर सकते हैं ।
शैर नम्बर 6 सही है,फिर भी आप चाहें तो सानी मिसरा यूँ कर लें:-
'जो तुम आओ ज़माने की नज़ाफ़त लेके आ जाना'
आदरणीय कबीर जी आदाब । आपकी इस्लाह के लिये
के कोटि-कोटि धन्यवाद।
सर ग़ज़ल तो पोस्ट कर दी लेकिन दो बातें इस ग़ज़ल में मुझे फिर से परेशान कर रही हैं ।
1) शेर नo: 4 सर
"वफ़ा के क़त्ल की साज़िश तुम्हारी भूल जाऊँगा,
अगर आओ तो अहसास-ए-नदामत लेके आ जाना ।"
सर इस शेर में तकाबुले रदीफ़ का दोष !
जो दूसरे शेर से दूर हुआ और इसमें आ गया ।
2) शेर नo: 6
"
यही ख़्वाहिश है इस दिल की रफ़ाक़त हो सलीके से,
तू जब आये ज़माने की नज़ाफ़त लेके आ जाना ।"
सर सभी शेर ('तुम') बहुवचन शब्द इस्तेमाल किया । लेकिन इस शेर में ( 'तू' ) एकवचन इस्तेमाल हुआ है ।
मेरी शंका का समाधान सर ।
सादर ।
आदरणीय समर जी बेहद शुक्रिया । इतने तफ़सील से बात की इसके लिए आभार । आगे भी आपसे प्रतिक्रयाओं का लाभ उठाता रहना चाहूंगा । शुक्रिया सर ।
सादर ।
आपकी ग़ज़ल की रदीफ़ है 'ले चले आना' और इसका अर्थ भी वही है जो मेरी सुझाई हुई रदीफ़ का है,'लेके आ जाना' आपके अशआर के भाव वही हैं,बदले नहीं ।
तक़ाबुल-ए-रदीफ़ का मुआमला ये है कि ये दो तरह का होता है,पहला जुज़्वी और दूसरा कुल्ली,जुज़्वी मान्य है,कुल्ली मान्य नहीं,उम्मीद है समझ गए होंगे?
आदरणीय समर कबीर जी आदाब और दिल से आभार । आपकी पारखी नज़र ने मेरी ग़ज़ल में वो त्रुटि आसानी से दूर कर दी जो प्रश्न बनकर आपके समक्ष आने वाली थी । आपकी दिव्य दृष्टि को सलाम ।
सर व्याकरण की दृष्टि से तो कृति एक दम परफेक्ट हो गयी पर अभी मेरी ज़ुबाँ पर आने में समय मांग रही है । शब्दावली बदलने से अहसास में फर्क महसूस सा होने लगा है । लेकिन इस वजह से ग़ज़ल गर ग़ज़ल न रहे तो क्या फायदा ।
सर जिस त्रुटि की मैं बात कर रहा था वो मेरी ग़ज़ल के दूसरे शेर में तकाबुले रदीफ़ का दोष । जिसे आपने आसानी से दुरुस्त किया है। जिसे मैं हटाने की कोशिश किया था पर मज़ा नही आ रहा था । सर मैने आगे भी कई गज़लों में ये दोष देखा है । क्या ये दोष ज़्यादा महत्व नही रखती क्या?
आपकी छत्र छाया में कलम में सुधार की उम्मीद में हूँ सर । कृपा बनाये रखियेगा ।
सादर !
यही ख़्वाहिश है इस दिल की रफ़ाक़त हो सलीक़े से
तू जब आये ज़माने की नज़ाफ़त लेके आ जाना
यूँ भी कर देंगे साबित ख़त हमारी बेगुनाही को
जमानत के लिए उनको अदालत लेके आ जाना
ये आपकी ग़ज़ल की इस्लाह हो गई, कोई प्रश्न हो तो पूछ सकते हैं ।
जनाब हर्ष महाजन जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है बधाई स्वीकार करें ।
ग़ज़ल की रदीफ़ व्याकरण की दृष्टि से सही नहीं है,इसकी जगह 'लेके आ जाना' होना चाहिए,इसी के हिसाब से कुछ सुझाव दे रहा हूँ :-
अगर माँगूँ तो थोड़ी सी नफ़ासत लेके आ जाना
महब्बत है तो दिल में तुम शराफ़त लेके आ जाना
रिवाज-ओ-रस्म-ए-उल्फ़त को सनम तुम भूल जाना मत
सफ़र ये आशिक़ी का है, नज़ाकत लेके आ जाना
जो दिल तेरा किसी भी ग़ैर के दिल में धड़कता हो
मगर तुम मेरी ख़ातिर वो अमानत लेके आ जाना
वफ़ा के क़त्ल की साज़िश तुम्हारी भूल जाऊँगा
अगर आओ तो अहसास-ए-नदामत लेके आ जाना
जो भेजे थे कभी अश्कों से लिखकर तुमको ख़त मैंने
वो यादों की अमानत हैं सलामत लेके आ जाना
बाक़ीके अशआर रात को देखता हूँ ।
ग़ज़ल आपको पसंद आई तो यकीन मानिए मेरी मेहनत वसूल हुई आदरणीय मोहम्मद आरिफ साहब । नज़रें इनायत के लिए ममनून हूँ सर ।
सादर !
यूँ भी कर देंगे साबित ख़त मेरी उस बेगुनाही कोजमानत के लिए वो सब अदालत ले चले आना । वाह! वाह!! बहुत ख़ूब ग़ज़ल का मकता कहा है जनाब ने । मज़ा आ गया । बहुत ही उम्दा ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें आदरणीय हर्ष महाजन जी । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे, इंतज़ार करें ।
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