लेके गुलाल हाथ में इक बार देखिये.
मुठ्ठी में होगी आपके बहार देखिये.
चम्मचों से मात वो चक्की भी खा गई.
आटा भी पाता रहा संसार देखिये.
अच्छे को अच्छा दिखता, दिखता बुरा बुरे को.
आईने सा है मेरा किरदार देखिये.
आज़ादी की कीमत आज़ाद ने चुकाई.
लाखों हैं आज इसके हक़दार देखिये.
पीतल भी आज देखो स्वर्ण हो गया.
खोटा-खरा बताती झनकार देखिये.
आसूदगी को मेरी कुछ और न समझ.
गर्के-उल्फत है मेरा संसार देखिये.
हल्ला मचा-मचा के मोहल्ला जगा दिया.
मुर्गों की हो रही हो भरमार देखिये.
‘हिन्दोस्तां’ की रातें रोशन इन्हीं से हैं.
खम्बों पे बिजलियों के ये तार देखिये.
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
जनाब गंगाधर शर्मा जी आदाब,सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करे ।
गुणीजनों की बातों का संज्ञान लें ।
जनाब गंगाधर साहिब ,ग़ज़ल को होली के रंग में डुबोने का अच्छा प्रयास किया है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें। ग़ज़ल के हिसाब से अभी पहले मिसरे को देखें तो उस बह्र में कोई मिसरा नज़र नहीं आता है ,ग़ज़ल वक़्त चाहती है ,कोशिश कीजिये ,कामयाबी ज़रूर मिलेगी ।
आदरणीय गंगाधर जी आदाब,
विविध विचारों की बानगी पेश करती बहुत ही उम्दा ग़ज़ल । हर शे'र माक़ूल है । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए । आपने ग़ज़ल की बह्र नहीं लिखी है ।
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