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ईमान छोड दूँ तो क़िरदार मार देगा,
इस पार बच गया तो उस पार मार देगा.
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आदत सी पड़ गयी है अब नफ़रतों की मुझ को
इतना न मुझ को चाहो ये प्यार मार देगा.
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कितना बचाऊँ लेकिन है तज्रबा... मुकद्दर,
इक रोज़ मेरे सर पर दीवार मार देगा.
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ये हक़ बयानी का इक औज़ार था मगर अब,
सच बोल दे कलम गर अख़बार मार देगा.
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कोचिंग की आशिक़ी में वह मुँह चिढ़ाता शनिचर,
लगता था जैसे हम को इतवार मार देगा.
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बोली बढ़ा घटा के बिक जाऊं तो ग़नीमत,
जो बिक न पाए उन को बाज़ार मार देगा.
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ऐ कामयाबी तेरी मैं राह तक रहा हूँ
इस बार वरना तेरा इन्कार मार देगा.
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निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. समर सर
शुक्रिया आ. मोहम्मद आरिफ साहब
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई! |
जनाब निलेश 'नूर'साहिब आदाब,वाह बहुत ख़ूब क्या शानदार ग़ज़ल कही है,ग़ज़ल मुंह से बोल रही है कि मैं निलेश नूर की हूँ,अपने मख़सूस लब-ओ-लहजे में कामयाब ग़ज़ल, शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
ये हक़ बयानी का इक औज़ार था मगर अब,
सच बोल दे कलम गर अख़बार मार देगा. वाह!वाह !! बहुत ही लाजवाब शेे'र हुुुआ है । मज़ा आ गया ।
लाजवाब और बेजोड़ ग़ज़ल के लिए दिली मुबारकबाद आदरणीय नीलेश जी ।
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