(फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन)
हो रहा उनका हर वक़्त दीदार है |
मेरी आँखों में तस्वीरे दिलदार है |
कुछ तो है दोस्तों शक्ले महबूब में
देखने वाला कर बैठता प्यार है |
उनका दीदार मुमकिन हो कैसे भला
उनके चहरे पे बुर्क़े की दीवार है |
मुझ पे तुहमत दग़ा की लगा कर कोई
कर रहा ख़ुद को साबित वफ़ादार है |
चाहे दीदारे दिलबर ,दवाएं नहीं
वो हकीमों मुहब्बत का बीमार है |
उसको क्या वारदाते जहाँ की ख़बर
जो पढ़े ही नहीं रोज़ अख़बार है |
चाहे कुछ भी हो अंजाम तस्दीक़ अब
कर दिया उनसे उल्फ़त का इज़्हार है |
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
जनाब तस्दीक़ अहमद साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'उनके चहरे पे बुर्क़े की दीवार है'
इस मिसरे में 'बुर्क़े' को दीवार से तशबीह सही नहीं है, ग़ौर कीजियेगा ।
'जो पढ़े ही नहीं रोज़ अख़बार है'
इस मिसरे में शिल्प कमज़ोर है'देखियेगा ।
'उनका दीदार मुमकिन हो कैसे भला
उनके चहरे पे बुर्क़े की दीवार है |"
खूब कहा आ0 तस्दीक अहमद साहब। अच्छी ग़ज़ल हुई है बधाई । बाकी गुणीजन ही बताएंगे ।
सादर ।
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