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मुंतज़िर मुंतज़िर रहा

मुंतज़िर मुंतज़िर रहा 

मूरत बनाई थी जो

मुस्सवर ख़्यालों में

अब तक वह पाक

हसीन खवाब ही रही

रातों अँधेरे में कभी

दिन के उजाले में भी

रोज़ आई मुस्तकिल:

हलकी-सी मुस्कराई

बिना सलाम चली गई

मैं डरता रहा थर-थर

तस्वीर की तकदीर से...

 

मैं खुश था बहुत  

बाहरआई तो सही

वह उस तस्वीर से

पर मिलते ही लगा

वह खफ़ा थी ज़रा

मुझसे ही हुई होगी

ज़रूर कोई खता ...

आँखें खुलते ही क्यूँ

वह मुंतज़र बाहें

इन मुंतज़िर बाहों से 

हो गईं इतनी पराई ...

        ------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

मुस्सवर          = सचित्र, चित्रित

मुस्तकिल:       = निरंतर

मुंतज़र            = जिसकी प्रतीक्षा करी जा रही हो

मुंतज़िर           = प्रतीक्षक

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Comment

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Comment by vijay nikore on March 25, 2018 at 9:38pm

 सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ भाई।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 25, 2018 at 5:42pm

आ. भाई विजय जी, एक और बेहतरीन रचना का रसास्वादन कराने के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 25, 2018 at 9:50am

एक और भावों से लबरेज रचना..बहुत सुन्दर आदरणीय

Comment by Mohammed Arif on March 24, 2018 at 12:33pm

आदरणीय विजय निकोर जी आदाब,

                              बहुत ही ख़ूबसूरत ख़्यालों के देश में विचरण करने को निकली कविता । पढ़कर मज़ा आ गया । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

Comment by vijay nikore on March 23, 2018 at 5:47pm

आपका हार्दिक आभार, आदरणीय श्याम जी।

Comment by Shyam Narain Verma on March 23, 2018 at 5:43pm
अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई 

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