२११२/ १२१२ // २११२/ १२१२
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जिसका मैं मुन्तज़िर रहा पल में वो पल गुज़र गया,
और वो लम्हा बीत कर अपनी ही मौत मर गया.
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मेरा सफ़र तवील है दूर हैं मंज़िलें मेरी
दुनिया फ़क़त सराय है रात हुई ठहर गया.
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कोई छुअन थी मलमली कोई महक थी संदली
ख़ुद में जो उस को पा लिया मुझ में जो मैं था मर गया.
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सारे तिलिस्म तोड़ कर अपनी अना को छोड़ कर
तेरे हवाले हो के मैं अपने ही पार उतर गया.
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पीठ थी रौशनी की ओर साये को देखते रहे
“नूर” से जब नज़र मिली, वक़्त वहीँ ठहर गया.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
धन्यवाद आ डॉ आशुतोष मिश्रा जी,,,
आप की दाद से अभिभूत हूँ
सादर
आदरणीय भाई निलेश जी बिलकुल अलग अंदाज में लिखे इस शानदार ग़ज़ल के इए हार्दिक बधाई सदर
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