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विहग निज चोंच में देखो,,,,,,

विहग निज चोंच में देखो,,,,,,

विहग निज चोंच में देखो, अहा! मछली दबोचे है|

फँसी खग कंठ में मछली, पड़े तन पर खरोंचे हैं ||
विहग औ मीन दोनों इक, सरीखे ही अबोले हैं |
मगर इक हर्ष दूजी भय, सँजोये आँख बोले हैं |१ |

उदर की भूख मिट जाए, यही चाहत विहग पाले |
वहीं पर मीन के देखो, पड़े हैं जान के लाले ||
सलामत जान की अपने, खुदा से चाहती मछली |
निवाला छूट ना जाए, यही मन सोचती बगुली |२ |


मौलिक और अप्रकाशित


-सत्यनारायण सिंह

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on March 31, 2018 at 10:06pm

बहुत खूब 

Comment by Mohammed Arif on March 31, 2018 at 5:38pm

आदरणीय सत्यनारायण जी आदाब,

                              बहुत ही सुंदर रचना । हार्दिक बधाई स्वीकार करें । काश!  विधा का नाम भी लिख दिया होता ।

कृपया ध्यान दे...

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