लल्ला गया विदेश
© बसंत कुमार शर्मा
उसको जब अपनी धरती का,
जमा नहीं परिवेश.
ताक रही दरवाजा अम्मा,
लल्ला गया विदेश.
खेत मढैया बिका सभी कुछ,
हैं जेबें खाली.
बैठी चकिया पीस रही है,
घर छोटी लाली.
बिना फीस के विद्यालय में,
मिला न उसे प्रवेश
नई बहुरिया आई घर में,
स्वप्न नये पाले.
दिखे यहाँ तो हर कोने में,
मकड़ी के जाले.
जाने कैसे कब सुलझेंगे,
उलझ गए जो केश
बुधिया के हुक्के की गुड़गुड़,
कहे कथा न्यारी.
कौन समझ पाया है उसकी,
क्या है बीमारी.
सूखी हुई पसुरियाँ दिखतीं,
नरकंकाली वेश.
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आपका ह्रदय से आभार
आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी आपका ह्रदय से आभार
आदरणीय Shyam Narain Verma जी आपका ह्रदय से आभार
आदरणीय Shyam Narain Verma जी आपका ह्रदय से आभार
आदरणीया Neelam Upadhyaya जी आपका ह्रदय से आभार
वाह क्या खूब गीत रचा है आदरणीय शर्मा जी..बहुत सुन्दर
आ. बसंत जी,
एक और उम्दा गीत हुआ है ..ईश्वर आप की लेखनी को यूँ ही समृद्ध करता रहे
सादर
बहुत सुन्दर मनभावन गीत .. बधाई |
आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी, नमस्कार । बढ़िया कविता हुयी है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीयSamar kabeer जी बहुत बहुत आभार दिल से आपका
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