अम्बर को पाती भिजवाई,
व्याकुल होकर धरती ने.
सभी जरूरी संसाधन दे,
नर को जीना सिखलाया.
मर्यादा का पालन लेकिन,
कभी कहाँ वह कर पाया.
अपने मन की बात बताई,
व्याकुल होकर धरती ने.
पर्वत छीने, नदियाँ छीनी,
बरगद, पीपल छीन लिए.
नित्य अक्ष पर घूम रही हूँ,
अपनी देह मलीन लिए.
आसमान को व्यथा सुनाई,
व्याकुल होकर धरती ने.
चीरहरण की पीड़ा कब तक,
सहना मुझको बतला दो.
अंगारों पर चलूँ कहाँ तक,
इतना मुझको बतला दो.
अपनी जलती देह दिखाई,
व्याकुल होकर धरती ने.
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय vijay nikore जी आपका दिल से शुक्रिया
सुन्दर गीत...आनन्द आ गया
आपका अतिशय आभार आदरणीया Neelam Upadhyaya जी
आदरणीय बसंत जी, सुंदर रचना की प्रस्तुति के बधाई स्वीकार करें ।
आपका अतिशय आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी
आ. भाई बसंत जी, सुंदर गीत हुआ है । हार्दिक बधाई ।
आपकी हौसलाअफजाई करती प्रतिक्रिया पर आपका बहुत बहुत धन्यवाद आदरनीय महेंद्र कुमार जी
पर्यावरणीय दोहन पर बढ़िया गीत लिखा है आपने आदरणीय बसंत जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
आदरणीय Mohammed Arif जी आपका दिल से शुक्रिया, यूँ ही स्नेह बनाये रखें, सादर
आदरणीय बसंत कुमार जी आदाब,
बरखा रानी की अच्छी आमद की मनोकामना से भरपूर प्यारे गीत की पेशकश पर हार्दिक बधाई ।
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