चाहत की परवाज अलग है
उसका हर अंदाज अलग है
ताजमहल की क्या है’ जरूरत
अपनी ये मुमताज अलग है
सुन पाते हैं केवल हम ही
अपने दिल का साज अलग है
मन की बातें मन में रखना
उसका रीति रिवाज अलग है
और अधिक तपता सावन में
विरही तन का राज अलग है
कैसे उसका कर्ज चुकाएँ
मूल बहुत है, ब्याज अलग है
कोई’ दवाई काम न आती
दिल का दर्द, इलाज अलग है
कल की बातें कल कर लेना
जीलो जी भर आज अलग है
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
ह्रदय से आभार आदरणीय Ganga Dhar Sharma 'Hindustan' आपका, सादर नमन
आदरणीय बसंत कुमार जी बड़ी ही भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई............
आ. भाई बसंत जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
गुस्से के सँग प्यार अगर हो, करें तो लय और निखर जायेगी ।
आपकी हौसलाअफजाई का दिल से शुक्रिया आदरणीय महेंद्र कुमार जी, इसी तरह मार्ग दर्शन करते रहें
आदरणीय बसंत जी, इस अच्छी ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. आदरणीय निलेश जी ने आपकी ग़ज़ल के सन्दर्भ में बहुत अच्छी इस्लाह दी है और आपने उसका संज्ञान भी लिया है. मुझे पूरी उम्मीद है इसके बाद ग़ज़ल और निखर कर आएगी.
"जनता चाहे माथा कूटे, मैं बस मन की बात कहूँगा" इस शेर पर आदरणीय निलेश सर को भी बधाई.
सादर.
आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी आपकी प्रेरक एवं सारगर्भित समीक्षा का हार्दिक स्वागत है, आपने मेरी रचना को इतना समय दिया अभिभूत हूँ, निश्चित ही इस पर अभी और काम करता हूँ, तदोपरांत आपके समक्ष प्रस्तुत करूंगा सादर नमन
आ. बसंत जी,
इस बहर में मात्राएँ बराबर भी हों तो भी लय अत्यंत महत्वपूर्ण है ..
.
मतले के सानी को रात अगर है रात कहूँगा कर लीजिये ,,
.
इधर बाढ़ है उधर है’ सूखा
इसे ग़लत अनुपात कहूँगा
मेरी ख़ुशी देख मुँह लटके
कैसे उसको भ्रात कहूँगा.... सही शब्द है भ्राता अथवा भ्रात: अत: भ्रात लेना सही नहीं है
गुस्से के सँग अगर प्यार हो,
तो उसको सौगात कहूँगा
तन मन दोनों भीगे जिसमें
फिर से हो बरसात कहूँगा
नफरत मारी-मारी भटके
तब अच्छे हालात कहूँगा
भाएँ उनके मन को
मैं अपने जजबात कहूँगा .. इस पर भी काम कीजिये थोडा..
एक शेर मेरी तरफ से ..
.
जनता चाहे माथा कूटे
मैं बस मन की बात कहूँगा :D
रचना थोडा समय और चाहती है
सादर
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