चल दिया लेकर तगारी
© बसंत कुमार शर्मा
सिर्फ रोटी के लिए बस,
खट रही है उम्र सारी.
सूर्य निकला भी नहीं, वह,
चल दिया लेकर तगारी.
ठण्ड, बारिश, धूप तीखी,
वार सारे सह रहा है.
और उसका खून ही तो,
बन पसीना बह रहा है.
ढक गया नीचे बदन कुछ,
देह ऊपर है उघारी.
हड्डियों का एक ढाँचा,
लग रहा जैसे बिजूका.
झेलता है आदमी यह,
जेठ में लू के भभूका.
रात दिन जोती धरा, पर
पट न पायी है उधारी.
चाल टेढ़ी है ग्रहों की,
भय उसे पंडित दिखाते
रोज साहूकार अपना,
रौब घर आकर जमाते.
जन्म से सुनता रहा है,
बँट रही इमदाद भारी.
"मौलिक एवं अप्रकाशित "
Comment
आदरणीय Neelam Upadhyaya जी आपका तहे दिल से शुक्रिया
आदरणीय Ajay Kumar Sharma जी आपका तहे दिल से शुक्रिया
आदरणीय अजय तिवारी जी, बहुत ही सुंदर रचना । बधाई स्वीकार करें ।
बहुत सुन्दर रचना.
आदरणीय Ajay Tiwari जी आपकी हौसलाअफजाई का दिल से शुक्रिया
आदरणीय बसंत जी, एक और अच्छे नवगीत के लिए हार्दिक बधाई.
आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी आपके अनुकरणीय सुझावों से मुग्ध हूँ, बहुत सुंदर , इसी तरह स्नेह बनाये रखें सादर
आ. बसंत जी,
एक के बाद एक सुंदर गीत पेश करने के लिए बधाई ..
कई पंक्तियों में ही भर्ती का है.. पहली पंक्ति में मात्र रोटी में र-र आपस में टकरा रहे हैं
सिर्फ रोटी के लिए बस ,
खट रही है उम्र सारी.
.
और उसका खून ही तो
बन पसीना बह रहा है.
.
भय उसे पण्डित दिखाते
.
रौब घर आकर जमाते
.
जन्म से सुनता रहा है ,
.
कुछ सुझाव हैं, आग्रह नहीं है ..
सादर
आदरणीय Samar kabeer जी आभार आपका, मैं कुछ करता हूँ
'बता पंडित डराते' 12 मात्रा
'रौब घर आकर दिखाते' 14 मात्रा,
इस हिसाब से यूँ होना चाहिये:- "ये बता पंडित डराते'"
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