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कैसा और कहां? (लघुकथा)

".. और सुनाओ, कैसे हो? हाउ आss यूss?"


"मालूम तो है न! ठीक-ठाक हूं!"


"ओके, मैं भी! लेकिन यह तो बताओ कि सब कुछ अच्छा ही है या अच्छा है सब कुछ 'ठोक-ठाक' के!"


"जानती तो हो ही तुम! घूम रहा हूं तुम्हारी तरह! लेकिन फ़र्क है!"


"फ़र्क! किस तरह का!"


"मेरा घूमना तुम्हारी तरह प्राकृतिक या ब्रह्मंड वाला कक्षा-चक्रीय नहीं है! मैं वैश्वीकरण के कारण घूम रहा हूं; यायावर सा हो गया हूं मैं!"


"हां, जानती तो हूं ही मैं भी!"


"तो तुमने देखा ही होगा कि इन दिनों मैं बहुत 'भार-रत' ही हूं, बोझिल सा!" अपनी कक्षा में घूर्णन करती हुई धरती से 'भारत' ने बड़े नक़्शे से कहा।


(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on May 5, 2018 at 6:12am

यह लघुकथा बड़ी रोचक लगी। अंत में  भारत को भार-रत पढ़कर पहले तो मुस्कान आई, और फिर अचंभा हुआ आपकी सोच की खूबी पर।

बहुत बधाई इस लघुकथा के लिए, भाई शैख़ शहज़ाद उस्मानी साहिब ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 3, 2018 at 11:00am

आ. उस्मानी साहब,
अच्छी  लघुकथा हुई है..
बधाई 

Comment by Samar kabeer on May 1, 2018 at 6:10pm

जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी साहिब आदाब,बहुत ख़ूब, कम शब्दों में उम्दा लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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