".. और सुनाओ, कैसे हो? हाउ आss यूss?"
"मालूम तो है न! ठीक-ठाक हूं!"
"ओके, मैं भी! लेकिन यह तो बताओ कि सब कुछ अच्छा ही है या अच्छा है सब कुछ 'ठोक-ठाक' के!"
"जानती तो हो ही तुम! घूम रहा हूं तुम्हारी तरह! लेकिन फ़र्क है!"
"फ़र्क! किस तरह का!"
"मेरा घूमना तुम्हारी तरह प्राकृतिक या ब्रह्मंड वाला कक्षा-चक्रीय नहीं है! मैं वैश्वीकरण के कारण घूम रहा हूं; यायावर सा हो गया हूं मैं!"
"हां, जानती तो हूं ही मैं भी!"
"तो तुमने देखा ही होगा कि इन दिनों मैं बहुत 'भार-रत' ही हूं, बोझिल सा!" अपनी कक्षा में घूर्णन करती हुई धरती से 'भारत' ने बड़े नक़्शे से कहा।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
यह लघुकथा बड़ी रोचक लगी। अंत में भारत को भार-रत पढ़कर पहले तो मुस्कान आई, और फिर अचंभा हुआ आपकी सोच की खूबी पर।
बहुत बधाई इस लघुकथा के लिए, भाई शैख़ शहज़ाद उस्मानी साहिब ।
आ. उस्मानी साहब,
अच्छी लघुकथा हुई है..
बधाई
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी साहिब आदाब,बहुत ख़ूब, कम शब्दों में उम्दा लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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