(122 122 122 122)
करोगे कहां तक सबब की वज़ाहत
अंधेरों की कब तक करोगे इबादत
यक़ीं रख के सर को झुकाते रहे हो
दिखाते रहे हो ये कैसी शराफ़त
नहीं ठीक है जो तुम्हारी नज़र में
उसी की ही करते रहे हो वकालत
नई प्रेम नदियां बहा दो जहां में
यहां पर दिखाओ ज़रा सी सख़ावत
भले ख्वाब हों पर हक़ीक़त बनेंगे
मिटेगी यहां नफरतों की रिवायत
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- नंद कुमार सनमुखानी
- मौलिक और अप्रकाशित
Comment
वाह वाह खूब ग़ज़ल कही आदरणीय..सादर
बहुत-बहुत शुक्रिया आ. 'मुसाफ़िर' साहब..
आ. नन्दकुमार जी, सुंदर गजल हुई है हार्दिक बधाई ।
आ. नन्द कुमार जी,
मेरा कतई आग्रह नहीं है कि आप वो शेर शामिल करें...
मैं सिर्फ़ यह इंगित कर रहा हूँ कि बात कहने के तरीके और भी हैं... और उन्हीं शब्दों के आसपास हैं..
बस कवि से हटकर पाठक बनकर सोचने की आवश्यकता है ..
सादर
आ. Samar Kabeer साहब, मुझे भी 'ही' की जगह 'तो' का इस्तेमाल ज़्यादा अपीलिंग लग रहा है, इस लिए मैं इस शइर में ये सुधार कर लेता हूं और शइर को बेहतर बनाने में मेरी मदद करने के लिए आपका शुक्रिया अदा करता हूं।
आ. नन्द कुमार जी
अच्छी ग़ज़ल हुई है ,,बधाई ..
शेरोन में लोच की थोड़ी कमी लग रही है ..
उदाहरण के लिए
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नहीं ठीक है जो तुम्हारी नज़र में
उसी की ही करते रहे हो वकालत.... इसे यूँ कहा जा सकता है ..
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ग़लत है तुम्हारी नज़र में भी लेकिन
किये जा रहे हो उसी की वकालत
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सादर
भर्ती के शब्द से मुराद है, उसकी जगह कोई मज़बूत शब्द जैसे :-
'उसी की तो करते रहे हो वकालत'
'तो' शब्द यहाँ 'ही' की बनिस्बत मुनासिब है, यही मैं अर्ज़ करना चाहता था ।
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