बह्र - मफाइलुन फइलातुन मफाइलुन फैलुन
वो किस तरह से मुकरते ज़ुबान दे बैठे।
तभी कचहरी मे झूठा बयान दे बैठे।
तमाम दाग थे दामन में जिसके उसको ही
टिकट चुनाव का आला कमान दे बैठे।
दिखाया स्वर्ग का सपना हमें जो ब्राह्मण ने
तो दान में उसे अपना मकान दे बैठे।
जो बात करते थे कल राष्ट्र भक्ति का साहब,
वो चन्द सिक्कों में अपना ईमान दे बैठे।
जब उनके प्यार को माँ बाप ने नकार दिया,
नदी में डूब के वो अपनी जान दे बैठे।
रहमदिली का ये आलम रहा है अपना भी
हम अपने हिस्से का ही आसमान दे बैठे।
हम उनके दम पे भला कैसे जंग जीतेंगे,
जो दुश्मनों को ही तीरो कमान दे बैठे।
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदर्णीय तस्दीक़ अहमद खान साहब बहुत बहुत शूक्रिया।
जनाब राम अवध साहिब , मिसरे की शुरुआत रहमदिल से करेंगे तो बह्र में नहीं होगा इसलिए उसे बीच में लेकर बह्र में किया है । सादर
आदर्णीय लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी ग़ज़ल पसन्दगी एवं हौसलाअफजाई के लिये बहुत बहुत शुक्रिया।
आदरणीय तस्दीक़ अहमद खान साहब आपके द्वारा दिये गये अमूल्य सुझाव के लिये बहुत बहुत धन्यवाद। शब्द ब्राहम्मण न होकर हिन्दी में शुद्ध शब्द ब्राह्मण है। इस प्रकार मेरे विचार से मिसरा बह्र में होना चाहिये। ईमान वाले शेर की जगह दूसरा शेर कहना शायद अधिक उचित रहेगा।
क्या रहमदिली की जगह रहम दिली लिखने से मिसरा दुरुस्त हो जावेगा।
शेर 7 में तकाबुले रदीफ का नगण्य दोष है। उचित सलाह के लिये पुन: धन्यवाद।
आदरणीय समर कबीर साहब जी ग़ज़ल पर सार्थक टिप्पणी करने एवं उत्साहवर्धन के लिये सादर आभार
आदरणीय श्री राम शिरोमणि पाठक जी ग़ज़ल पसन्दगी के लिये बहुत बहुत शूक्रिया
आ. भाइ रामअवध जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
जनाब राम अवध साहिब ,अच्छी ग़ज़ल हुई है ,मुबारक बाद क़ुबूल फरमायें।
जनाब राम अवध जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें,शेष जनाब निलेश जी कह चुके हैं,उनकी बातों का संज्ञान लें ।
बढ़िया तंज़ करती हुई ग़ज़ल आदरणीय।।दिली दाद
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