(फ़ा इलातुन--मफाइलुन--फ़ेलुन)
हुस्न और इश्क़ की कहानी है।
एक है आग एक पानी है।
कह रही है वफ़ा जिसे दुनिया
उसको पाने की मैं ने ठानी है।
बन के आए हैं वो तमाशाई
आग घर की किसे बुझानी है।
सोच कर कीजियेगा तर्के वफ़ा
अपनी यारी बहुत पुरानी है।
घिर गए मुश्किलों में और भी हम
आप की बात जब से मानी है।
वो अदावत से काम लेते हैं
हम को जिन से वफ़ा निभानी है।
प्यार को क्या मिटाएगी दुनिया
ख़ुद ही तस्दीक़ ये तो फ़ानी है।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
मुहतरम जनाब समर साहिब आदाब ,आपकी सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
वफ़ा का मतलब यहाँ मिसरे में दोस्ती, मुहब्बत लिया गया है । शेर3 में मफ़हूम यह है कि वो सिर्फ तमाशाई बन कर आये है ,घरमें आग जो लगी है उसे बुझाने नहीं । सादर
आ. तस्दीक़ अहमद साहब,
अच्छी ग़ज़ल हुई है ..
बधाई
जनाब श्याम नारायण वर्मा साहिब ,आपकी ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
जनाब राम शिरोमणि साहिब ,ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
जनाब तस्दीक़ अहमद साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है, दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
"कह रही है वफ़ा जिसे दुनिया
उसको पाने की मैंने ठानी है'
'वफ़ा' की जाती है, निबाही जाती है,इसे पाने की बात अजीब लग रही है ।
'बन के आए हैं वो तमाशाई
आग घर की किसे बुझानी है'
इस शैर का मफ़हूम साफ़ नहीं है,दोनों मिसरों में रब्त नहीं है ,देखियेगा ।
इस शानदार ग़ज़ल के लिए दिल से बधाईयाँ |
अच्छा कहा है जनाब।।बधाई
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