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हरजाई ....

हरजाई ....

ये
वो गालियां हैं
जहां
अंधेरों में
सह्र होती है
उजाले उदास होते हैं
पलकों में
खारे मोती

होते हैं

बे-लिबास जिस्म,
लिपे -पुते चेहरे,
शायद
बाजार में
बिकने की
ये पहली जरूरत है

इक रोटी के लिए
सलवटों से खिलवाड़
रौंदे गए जिस्म की
बिलखती दास्ताँ हैं

भोर
एक कह्र ले कर आती है
पेट की लड़ाई
शुरू हो जाती है
दिन ढलने के साथ -साथ
पुरानी कहानी
फिर दोहराई जाती है

चेहरे के मेकअप की तरह
दुःख पर
हंसी का मेकअप लगाया जाता है
जिस्म के हर कोने को
तरतीब से सजाया जाता है
शमा जलाई जाती है
महफ़िल सजाई जाती है
कदम थिरकने लगते हैं
थाप लगाई जाती है
फिर
हर अँधेरे की
बोली लगाई जाती है

वासना की आंधी में
सब कुछ उजड़ जाता है
सपनों के नीड़ में
नीर उतर आता है

रात के रिश्ते
रात के साथ
फ़ना हो जाते हैं
सह्र के दर्द
सह्र के साथ उभर आते है

भोर होते ही
इनकी आँखों में
कह्र होता है
इक अश्क
दिल का नगर भिगोता है
एक तन्हाई साथ होती है


फिर रात में
सह्र होती है
बार बार जिस्म की
रुसवाई होती है
मजबूरी की दहलीज़ पर
समझौते साँस लेते हैं
बिकें नहीं तो क्या करें ये ज़िस्म
भूख
बड़ी हरजाई होती है

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on May 17, 2018 at 8:23pm
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से शुक्रिया।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 16, 2018 at 7:37pm

आ. भाई सुशील जी, अच्छी कविता हुयी है । हार्दिक बधाई ।

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