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सब कुछ है मेरे पास मगर बेजुबान हूँ ।
क़ानून तेरे जुल्म का मैं इक निशान हूँ ।।
क्यूँ माँगते समानता का हक़ यहां जनाब ।
भारत की राजनीति का मैं संविधान हूँ ।।
उनसे थी कुछ उमीद मुख़ालिफ़ वही मिले ।
जिनके लिए मैं वोट का ताजा रुझान हूँ ।।
कुनबे में आ चुका है यहाँ भुखमरी का दौर ।
क़ानून की निगाह में ऊंचा मकान हूँ ।।
गुंजाइशें बढ़ीं हैं जमीं पर गिरेंगे आप ।
जबसे कहा है आपने मैं आसमान हूँ ।।
सदियों से गन्ध लोग मिटाते रहे मेरी ।
जिनको खबर है देश का मैं ज़ाफरान हूँ ।।
हालात पे न तंज अभी कीजिये हुजूर ।
मैं मुश्किलों के दौर का तीरो कमान हूँ ।।
सैलाब आ रहा है यहाँ ख़ामुशी के साथ ।
मैं तो सितम की आंच से उठता उफ़ान हूँ ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय नवीन जी बढ़िया ग़ज़ल हुयी है . इस रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर
बहुत खूब...
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