2122 2122 2122 212
दूरियां नजदीकियां बन तो गयी हैं आजकल
पास रहते लोग से हम दूर कितने हो गए
माँ पिता सारे मरासिम गुम हुए इस दौर में
रोटियों के फेर में मजबूर कितने हो गए
भूल जाओगे मुझे तुम एक दिन मालूम था
इश्क में मेरे मगर मशहूर कितने हो गए
पत्थरों पर सर पटककर फायदा कोई नहीं
उसके दर पर ख्वाब चकनाचूर कितने हो गए
रात काली नागिनों सी डस रही है आजकल
हमनशीं थे कल तलक मगरूर कितने हो गए
जो चमकते चाँद से रहते सदा ही शादबां
इश्क से चूके तो वे बेनूर कितने हो गए
टीन के खाली कनस्तर की तरह थे बज रहे
मिल गयी कुर्सी उन्हें भरपूर कितने हो गए
देती है ताक़त सियासत जम्हूरियत में इस कदर
बन गए नेता तो वे मख्मूर कितने हो गए
मुफलिसी में इश्क का नीरज मज़ा कुछ और है
हाथ खाली भी मिले मसरूर कितने हो गए
था कतल का काम जिनका बस चुनावों से कबल
जीत कर वो आये हम मश्कूर कितने हो गए
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय नीरज जी
नमस्कार बहुत ही खूबसूरत गजल ...मुबारकबाद कुबूल फरमायें ।
आ. भाई नीरज जी, अच्छे असआर हुये हैं हार्दिक बधाई।
हार्दिक आभार जनाब समर साहब ....
आपने जो मिसरा लिखा है वो शिल्प और व्याकरण की दृष्टि से ठीक नहीं'चुनआव' कोई शब्द नहीं है,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-
'क़त्ल करना काम था जिनका हमेशा दोस्तो'
अब जबकि आपका संदेह दूर हो गया तो,आख़री शैर के ऊला मिसरे को कैसे दुरुस्त करेंगे?
आदरणीय सुशिल सरना जी आपका आभार
आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी आपका आभार
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