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गुल जो सूखा किताब में देखा ।
आपको फिर से ख़्वाब में देखा ।।
बारहा चाँद की नज़ाक़त को ।
झाँक कर वह नकाब में देखा ।।
मैकदे में गया हूँ जब भी मैं ।
तेरा चेहरा शराब में देखा ।।
वस्ल जब भी लगा मुनासिब तो।
कोई हड्डी कबाब में देखा ।।
तोड़ पाता उसे भला कैसे ।
हुस्न उसका गुलाब में देखा ।।
डाल कर फूल राह में सबके ।
मैंने पत्थर जबाब में देखा ।।
लुट गईं रोटियां गरीबों की ।
हादसा इंकलाब में देखा ।।
तेरे आने का जिक्र होते ही ।
रंग आता शबाब में देखा ।।
कौन कहता है तुम नशे में हो ।
मैंने तुमको हिसाब में देखा ।।
हैं मुहब्बत बड़ी या फिर दौलत ।
आपके इंतखाब में देखा ।।
-- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
4थे शैर में 'हड्डी' शब्द स्त्रीलिंग है, इसके कारण रदीफ़ 'देखा' की जगह "देखी" हो रही है,मिसरा बदलने का प्रयास करें ।
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी, नमस्कार । अच्छी रचना । हार्दिक बधाई ।
इस खूबसूरत रचना के लिये दिली दाद कुबूल करें |
वाह अच्छी ग़ज़ल हुई है बधाई.....
आ0 रक्षिता सिंह जी तहे दिल से शुक्रियः ।
आदरणीय नवीन जी नमस्कार,
बहुत ही उम्दा गजल..
".डाल कर फूल राह में सबके ।
मैंने पत्थर जबाब में देखा "
मुबारकबाद कुबूल फरमायें ।
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