कितनी ही बार वह प्रयास कर चुका था लेकिन झोला संभालने में वह अपने आप को असमर्थ पा रहा था. अपने आप पर उसे अब क्रोध आने लगा, क्या जरुरत थी पैदल आकर सब्जी खरीदने की. स्कूटर रहता तो कम से कम उसपर इसे रख तो लेता लेकिन अब करे? सब्जियों से ठसाठस भरा झोला उठाने में उसे वैसे ही बहुत कठिनाई हो रही थी और उस पर इसकी पट्टी को आज ही टूटना था.
अब घर कैसे जाए, झख मारकर उसने घर पर बेटे को फोन लगाया. बेटा भी मैच देखने में मगन था तो उसने भी टालते हुए कहा "अरे एक रिक्शा ले लीजिये और आ जाईये", और फोन रख दिया. बड़ी मुश्किल से झोले को जमीन पर अपने पैरों के पास उसने टिकाया और एक रिक्शे वाले को आवाज दी.
रिक्शे वाले ने झोले को रिक्शे पर रखा और उसको बैठाकर चल पड़ा. वह मन ही मन कुढ़ रहा था कि रिक्शे वाले ने उससे कहा "बिना पट्टी के झोले को भी ढोना कितना मुश्किल है न बाबूजी".
उसको याद आया, कल ही तो बाबूजी कह रहे थे "तुम लोग ही तो हमारा सहारा हो इस उमर में", और फिर उन्होंने अपना सर दूसरी तरफ घुमा लिया था.
झोले को घर में रखकर वह स्कूटर लेकर तुरंत बाबूजी के पास निकल पड़ा, पीछे से आती पत्नी की आवाज "अरे, अब कहाँ चल दिए" का जवाब देना उसने उचित नहीं समझा.
मौलिक एवम अप्रकाशित
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बहुत बहुत आभार आ समर कबीर साहब
बहुत बहुत आभार आ शेख शहज़ाद उस्मानी साहब
जनाब विनय कुमार जी आदाब,अच्छी लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
बेहतरीन यथार्थपूर्ण, कटाक्षपूर्ण व प्रेरक विचारोत्तेजक सृजन।.हार्दिक बधाइयाँ आदरणीय विनय कुमार साहिब।
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