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आदरंणीय रवि शुक्लजी,
प्रस्तुति पर आपके अनुमोदन का हार्दिक धन्यवाद.
शुभातिशुभ
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आदरणीय विजय निकोर जी,
आपसे मिला उत्साहवर्द्धन मेरे लिए थाती है. प्रस्तुति पर आपकी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.
सादर
आदरणीय सौरभ भाई जी नमस्कार एक अंतराल बाद आज फिर से मंच पर उपस्थित हैं। आपका नवगीत पढ़ा बहुत अच्छा लगा इसे अनुभव ही कर सकते हैं अपनी भावनाओं को शब्दों में अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य नहीं है। प्रतीक और बिंब आकर्षित करते हैं और इस गीत के मूल में जो एक भाव है वह आकर्षित करने वाला है बहुत-बहुत बधाई इस नवगीत के लिए
//
देखिए मेरी उंगलियाँ कहाँ हैं, आदरणीय ? .. कान पर ! ..
और ये लीजिए .. .. ग्यारह.. बारह.. तेरह.. .. .. पच्चीस.. छब्बीस .. सताइस ... ... //
हा हा हा..
बहुत हो गया भाई,अब बस भी करें...गिन्ती आप गिन रहे हैं थकन मुझे हो रही है,हो जाता है ।
//अब न होगी ऐसी ग़लती दुबारा .. //
"दुबारा" शब्द पर एक बात याद आई,पाकिस्तान के मशहूर शइर 'अनवर शुऊर" इस शब्द को "दुबर्रा" लिखते और बोलते हैं,है न मज़े की बात ।
समय मिलते ही पुनः आपकी प्रस्तुति पर आता हूँ ।
आपके नवगीत के मनमोहक भाव और आकर्षक लय से सदैव समान प्रभावित हुआ। आपको हार्दिक बधाई, आदरणीय सौरभ जी।
आदरणीय सौरभ सर, आपने मेरा भ्रम दूर किया.....
वास्तव में आपकी ये पंक्तियाँ मुझ पर ही सटीक बैठ गईं......
आदरणीय पंकज जी, आपने नवगीत का संदर्भ ले कर मुझे नाहक ही महिमामण्डित कर दिया. जबकि सच्चाई का हमें भी खूब भान है. आपको प्रस्तुति तथ्यपरक, पठनीय एवं रोचक लगी है तो यह आपकी सुधी दॄष्टि का ही परिचायक है.
हार्दिक धन्यवाद
// एक छोटा सा दोष है, रचना में; सम्भवतः यह दोष मेरी क्षुद्र-बुद्धि का भ्रम हो?
भाई, आपके इंगितों का सदैव हृदयतल से स्वागत रहा है.
वस्तुतः, गीत में इंगित ’मसानी’ कवि के साथ आत्मीय सम्बन्धों को जीता हुआ है. इस कारण ’चलो’ को लेकर कोई दुविधा नहीं है.
आपने चलो के साथ चल को लेकर आपत्ति उठायी है.
आपसे निवेदन है कि आप गीत की भाव-अनवरतता तथा उसके कथ्य में अनिवार्य आवृतियों के प्रति भी सचेत और आग्रही हों.
गीत ग़ज़ल विधा नहीं है कि उसके एक शेर के कथ्य में उस शेर की कहन का समापन हो जाय. इसी कारण तो शेर के सम्बोधन अनवरतता को जीते हैं. कोई दूसरा शेर पहले शेर से नितांत अलग ही सम्बोधन को उकेरेगा.
जबकि, गीत अपने मुखडे से प्रारम्भ हो कर अंतरा दर अंतरा होता हुआ अपनी अंतिम आधार पंक्ति तक एक ही भाव को जीता है. यानी पारस्परिक व्यवहार में कई बार आप से तुम और तुम से तू का हो जाना अपवाद की बात नहीं हुआ करती है.
यह तो हुई तर्क की बात. किन्तु मेरे नवगीत का चल आदेशात्मक क्रिया न हो कर व्यवहार क्रिया है. चल यानी ’चल कर’. इस हिसाब से पंक्ति होगी --
उलझन में चल (कर)
माया का भरमाया झेलें.
इसका अर्थ हुआ, माया के कारण मानव मन में जो भ्रम पैदा हो जाता है, जिस कारण साँप को रस्सी और रस्सी को साँप समझने की सांसारिक भूल होने लगती है ,उसे नकारें नहीं. वस्तुतः, कवि ’मसानी’ से इस भ्रम को दृढ़ हो कर झेलने यानी जीतने की बात करता है. न कि भ्रम से भाग कर समाज छोड़ने की बात करता है. विश्वास है, आप मेरे कहे का आशय समझ पाये होंगे.
गीत के निहितार्थ को समझ कर इस पर भी चर्चा करें तो हमें और संतोष होगा. मेरा कहना सार्थक हो जाएगा.
शुभातिशुभ
आदरणीया नीलम जी, आपकी संवेदनशील दृष्टि से मेरा लेखन सार्थक हुआ. आपका सादर धन्यवाद
नवगीत के कथ्य के मूल बिन्दु अपने घर-जवार की भीत में ही हैं. इस तथ्य के प्रति आपका ध्यान गया भी होगा.
एक अरसे बाद आपसे प्रस्तुति के बहाने भेंट-मुलाकात हो रही है. विश्वास है, आप सपरिवार स्वस्थ एवं सानन्द होंगीं.
शुभातिशुभ
आदरणीय समर भाई साहब, आपने इस प्रस्तुति को अपना बहुमूल्य समय दिया यह मेरे साथ-साथ इसका भी सम्मान है. आपकी सुधी दृष्टि से यह नवगीत धनी हुआ है.
//मंच के नियमानुसार आपने मौलिक व अप्रकाशित नहीं लिखा? //
देखिए मेरी उंगलियाँ कहाँ हैं, आदरणीय ? .. कान पर ! ..
और ये लीजिए .. .. ग्यारह.. बारह.. तेरह.. .. .. पच्चीस.. छब्बीस .. सताइस ... ...
अब तो बच्चे पर दया दिखाएँ हुज़ूर !.. रहम .. रहम ...
अब न होगी ऐसी ग़लती दुबारा ..
जय-जय
आदरणीय बसंत जी, आपकी सुधी दृष्टि से यह प्रस्तुति समृद्ध हुई .. आपका हार्दिक आभार
शुभ-शुभ
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