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तेरे आने से आये दिन सुहाने ।
हैं लौटे फिर वही गुजरे ज़माने ।।
भरा अब तक नही है दिल हमारा ।
चले आया करो करके बहाने ।।
हमारे फख्र की ये इन्तिहाँ है ।
वो आये आज हमको आजमाने ।।
बड़ी शिद्दत से तुझको पढ़ रहा था ।
हवाएं फिर लगीं पन्ने उड़ाने ।।
शिकायत दर्ज जब दिल में कराया ।
अदाएँ तब लगीं पर्दा हटाने ।।
नज़र से लूट लेना चाहते हैं ।
हैं मिलते लोग अब कितने सयाने ।।
न चर्चा कर यहाँ अपनी वफ़ा का ।
अभी तक घाव जिन्दा हैं पुराने ।।
गवाही आँख उनकी दे रही है ।
वो आए हैं फ़क़त रस्में निभाने ।।
जरा सी सच बयानी हो गयी तो ।
ज़माना आ गया मुझको झुकाने ।।
नसीहत दे रही है मुफ़लिसी भी ।
लगे हैं यार सब आँखे चुराने ।।
---नवीन मणि त्रिपाठी मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ0 लक्ष्मण धामी साहब तहे दिल से शुक्रिया ।
आ0 कबीर सर सादर नमन । इस महत्वपूर्ण इस्लाह हेतु हार्दिक आभार सर ।
आ. भाई नवीन जी, सादर अभिवादन । सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
' हमारे फख्र की ये इन्तिहाँ है'
इस मिसरे में 'इन्तिहाँ' को "इन्तिहा" कर लें ।
' शिकायत दर्ज जब दिल में कराया'
इस मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर देखें,और शिल्प भी,मिसरा यूँ कर सकते हैं:-
'शिकायत दर्ज की जब दिल में हमने'
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