मस्त हुए वे प्रभुताई में
देश झुलसता महँगाई में
घास तलक उगना हो मुश्किल
क्या रक्खा उस ऊँचाई में
फटी चदरिया थी जीवन की
वक्त गया सब तिरुपाई में
भाप सरीखे उड़ जाते हैं
रिश्ते-नाते कठिनाई में
मेरा भारत खोया अब तो
हिन्दू मुस्लिम ईसाई में
भूख, गरीबी, आह, विवशता
सब कुछ तो है सच्चाई में
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय समर कबीर जी आपकी इस्लाह का बहुत बहुत शुक्रिया, अभी सुधारता हूँ , सादर नमन
इसी तरह मतले के ऊला मिसरे की भी तक़्ति करके देखें ।
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,बह्र-ए-मीर पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
' भारत खोया हुआ आजकल'
ये मिसरा लय में नहीं है:-
भारत/फेलुन
खोया/फेलुन
हुआ आ/121'आ 'की मात्रा गिराएं तो ।
जकल/फ़अल 12
इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-
'मेरा भारत खोया अब तो'
हृदय से आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' , आदरणीय डॉ छोटेलाल सिंह जी आपका , सादर नमन
आदरणीय बसन्त कुमार शर्मा जी बेहतरीन यथार्थ पूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत बधाई
आ. भाई बसंत जी, बहुत खूब गजल हुयी है , हार्दिक बधाई ।
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