ग़ज़ल
बहुत दिनों से है बाक़ी ये काम करता चलूँ
मैं नफ़रतों का ही क़िस्सा तमाम करता चलूँ
अब आख़िरत का भी कुछ इन्तिज़ाम करता चलूँ
दिल-ओ-ज़मीर को अपने मैं राम करता चलूँ
जहाँ जहाँ से भी गुज़रूँ ये दिल कहे मेरा
तेरा ही ज़िक्र फ़क़त सुब्ह-ओ-शाम करता चलूँ
अमीर हो कि वो मुफ़लिस,बड़ा हो या छोटा
मिले जो राह में उसको सलाम करता चलूँ
गुज़रता है जो परेशान मुझको करता है
तेरे ख़याल से कैसे कलाम करता चलूँ
"समर"हयात का मक़सद बना लिया है यही
चलन वफ़ा का ज़माने में आम करता चलूँ
"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
//"राम करता चलूँ" यह मैं समज नहीं पाया इस लिए आपसे पूछ रहा हूँ//
'राम करना' उर्दू का मुहावरा है,इसका अर्थ है:-क़ाबू में लाना,राज़ी करना ।
जनाब ख़ुर्शीद अनवर साहिब,वालेकुमससलाम, ग़ज़ल की सराहना के लिए धन्यवाद ।
जनाब समर कबीर सा . अस्सलाम अलय कुम .बहुत अच्छी ग़ज़ल डली है
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
अमीर हो कि वो मुफ़लिस,बड़ा हो या छोटा
मिले जो राह में उसको सलाम करता चलूँ --- क्या बात है /क्या नज़रिया है जनाब सही कहा सलाम के लिए क्या अमीर क्या ग़रीब देखना बहुत खूब कलाम के लिए ढेरों दाद क़ुबूल फरमाएं |
जनाब सुरख़ाब बशर साहिब आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
जनाब समर कबीर साहब बहुत उम्दा ग़ज़ल है
रह शेर पे सौ सौ दाद
मुबारक बाद कु़बूल करें
क्षमा की कोई बात नहीं भाई, बस ये है कि हमें अपने मंच की परिपाटी का ध्यान हर समय होना चाहिए,आपका पुनः धन्यवाद ।
जनाब समर साहब। आप बड़े भाई व मार्गदर्शक हैं। यदि कोई भूल हुई है तो क्षमा चाहता हूं।आगे से ध्यान रहेगा कि ऐसा न हो।
मैं समझता हूं कि दो-तीन शब्दों की टिप्पणी करना अच्छा नहीं होता। किंतु कईं बार शब्द नहीं मिलते किसी चीज़ का वर्णन करने के लिए। बस मन मे एक भाव आया और वही लिख दिया। यह टिप्पणी नहीं एक मनोस्थिति थी।
// अहहहा//
भाई अजय जी आदाब,इतनी मुख़्तसर टिप्पणी?ये तो ओबीओ की परिपाटी नहीं है,बहरहाल आपका शुक्रिया ।
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