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पूछ रहा मुझसे स्वदेश

पूछ रहा मुझसे हिमालय,

पूछ रहा वैभव अशेष
पूछ रहा क्रांत गौरव भारत का,

पूछ रहा तपा भग्नावशेष
अनंत निधियाँ कहाँ गयी,

क्यों आज जल रहा तपोभूमि अवशेष;
कैसे लूटी महान सभ्यता प्राचीन,

क्यों लुप्तप्राय वीरोचित मंगल उपदेश !
कितने कलियों का अन्त हुआ भयावह,

कितने द्रोपदियों के खुले केश,
बता,कवि! कितनी मणियाँ लुटी,

कितनों के लुटे संसृति-चीर विशेष !
चढ़ तुंग शैल शिखरों से देख!

नहीं सौंदर्य बोध,विघटन के विविध क्लेश;
कहाँ विस्मृत धधकता स्फुलिंग दुर्धुर्ष,

कहाँ कुपित काल विकराल शेष!
ज्ञान-विज्ञान अनुसंधान कहाँ गये,

कहाँ लुप्त-विलीन अरूण ललाट श्लेष,
गंगा-यमुना-सिंधु की अमिय धार कहाँ,

उद्दाम प्रीति बलिदान लेश,
कहाँ गये तप-तेज दिव्य तुम्हारे ,

कहाँ प्रबुद्ध विभा तलवार वेष;
कहाँ अस्त ज्योतिर्मयी अनंत शिखायें,

बता खंडित-वीरान कैसे हुआ स्वदेश?
ओ वीर-व्रती तु कहाँ छुपे हो, पल भर भी कर ले दृगुन्मेष;
ज्वालाओं से दग्ध विकल उलझन में , तड़प रहा प्यारा स्वदेश !

- कवि आलोक पाण्डेय
वाराणसी ,भारतभूमि
(मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment by आलोक पाण्डेय on September 8, 2018 at 8:27pm
आप सभी का बहुत बहुत आभार ...
अतीव आभार
जय हिन्द !
Comment by नाथ सोनांचली on September 5, 2018 at 6:28pm

आद0 आलोक पांडेय जी सादर अभिवादन। बढ़िया ओजपूर्ण रचना हुई है, बधाई स्वीकार कीजिये। वैसे इस रचना का शिल्प क्या था या कौन सी विधा में यह रचना है।

Comment by babitagupta on September 5, 2018 at 5:47pm

देश की दुर्दशा के कारणों को झकझोरती बेहतरीन रचना,हार्दिक बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीय आलोक सरजी।

Comment by Samar kabeer on September 5, 2018 at 2:41pm

जनाब आलोक पाण्डेय जी आदाब,अच्छी रचना हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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