"व्रत ने पवित्र कर दिया।" मानस के हृदय से आवाज़ आई। कठिन व्रत के बाद नवरात्री के अंतिम दिन स्नान आदि कर आईने के समक्ष स्वयं का विश्लेषण कर रहा वह हल्का और शांत महसूस कर रहा था। "अब माँ रुपी कन्याओं को भोग लगा दें।" हृदय फिर बोला। उसने गहरी-धीमी सांस भरते हुए आँखें मूँदीं और देवी को याद करते हुए पूजा के कमरे में चला गया। वहां बैठी कन्याओं को उसने प्रणाम किया और पानी भरा लोटा लेकर पहली कन्या के पैर धोने लगा।
लेकिन यह क्या! कन्या के पैरों पर उसे उसका हाथ राक्षसों के हाथ जैसा दिखाई दिया। घबराहट में उसके दूसरे हाथ से लोटा छूट कर नीचे गिरा और पानी ज़मीन पर बिखर गया। आँखों से भी आंसू निकल कर उस पानी में जा गिरे। उसका हृदय फिर बोला, "इन आंसूओं की क्या कीमत? पानी में पानी गिरा, माँ के आंचल में तो आंसू नहीं गिरे।"
यह सुनते ही उसे कुछ याद आया, उसके दिमाग में बिजली सी कौंधी और वहां रखी आरती की थाली लेकर दौड़ता हुआ वह बाहर चला गया। बाहर जाकर वह अपनी गाड़ी में बैठा और तेज़ गति से गाड़ी चलाते हुए ले गया। स्टीयरिंग संभालते उसके हाथ राक्षसों की भाँती ही थे। जैसे-तैसे वह एक जगह पहुंचा और गाडी रोक कर दौड़ते हुए अंदर चला गया। अंदर कुछ कमरों में झाँकने के बाद एक कमरे में उसे एक महिला बैठी दिखाई दी। बदहवास सा वह कमरे में घुसकर उस महिला के पैरों में गिर गया। फिर उसने आरती की थाली में रखा दीपक जला कर महिला की आरती उतारी और कहा, "माँ, घर चलो। आपको भोग लगाना है।"
वह महिला भी स्तब्ध थी, उसने झूठ भरी आवाज़ में कहा "लेकिन बेटे इस वृद्धाश्रम में कोई कमी नहीं।"
"लेकिन वहां तो… आपके बिना वह अनाथ-आश्रम है।" उसने दर्द भरे स्वर में कहा ।
और जैसे ही उसकी माँ ने हाँ में सिर हिला कर उसका हाथ पकड़ा, उसे अपने हाथ पहले की तरह दिखाई देने लगे।
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय क्च्छीचन्द्रेश भाई जी सादर नमन! कथा बुनी है।
कन्यापूजन से भी उसे संतोष कैसे मिलता जब उसने अपनी माँ का मान सम्मान क़ायम नही रखा ।जब आत्मा से टीस उठी तब जाकर गल्ती का अहसास होना भी माँ के लिये बहुत है।संदेशप्रद कथा के लिये बधाई आद० चंद्रेश छतलानी जी ।
रचना पसंद करने और अपनी टिप्पणी द्वारा मेरा उत्साहवर्धन करने हेतु सादर आभार आदरणीय विजय निकोरे जी सर।
सामाजिक स्थिति पर प्रकाश डालने मे सफ़ल हुई है आपकी लघु कथा। हार्दिक बधाई, आदरणीय चंद्रेश कुमार जी
आदरणीय डॉ. विजय शंकर जी सर, आपका रचना पर आना ही मेरे लिए बहुत बड़े सम्मान की बात है। रचना के मर्म तक पहुँच कर आपकी प्रेरणादायी समीक्षा मेरे सिर आँखों पर। सादर,
रचना पर अपनी उपस्थिति और उत्साह बढ़ाते शब्दों हेतु सादर आभार आदरणीया नीलम उपाध्याय जी।
रचना पर आकर अपनी टिप्पणी द्वारा उत्साहवर्धन करने और अच्छे सृजन हेतु मार्ग सुझाने हेतु हार्दिक आभार आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' भाई जी।
रचना पर आकर आशीर्वाद स्वरुप टिपण्णी देने हेतु सादर आभार आदरणीय तेजवीर सिंह जी सर।
बहुत-बहुत आभार आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी साहब आपने रचना का बहुत अच्छा विश्लेषण किया और बेहतरीन सृजन के लिए मेरी हौसला अफ़ज़ाई की।
//उसने झूठ भरी आवाज़ में कहा "लेकिन बेटे इस वृद्धाश्रम में कोई कमी नहीं।"// इस अभिव्यक्ति में अनकहे में बहुत कुछ है; तो // लेकिन वहां तो… आपके बिना वह अनाथ-आश्रम है// इस में भी आज के जीवन और आत्म-मूल्यांकन/सिंहावलोकन की वास्तविक गहराई है। सादर हार्दिक बधाई और सबक़ हेतु आभार आदरणीय डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी साहिब।
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