कितने ही सालों से भटकती उस रूह ने देखा कि लगभग नौ-दस साल की बच्ची की एक रूह पेड़ के पीछे छिपकर सिसक रही है। उस छोटी सी रूह को यूं रोते देख वह चौंकी और उसके पास जाकर पूछा, "क्यूँ रो रही हो?"
वह छोटी रूह सुबकते हुए बोली, "कोई मेरी बात नहीं सुन पा रहा है… मुझे देख भी नहीं पा रहा। कल से ममा-पापा दोनों बहुत रो रहे हैं… मैं उन्हें चुप भी नहीं करवा पा रही।"
वह रूह समझ गयी कि इस बच्ची की मृत्यु हाल ही में हुई है। उसने उस छोटी रूह से प्यार से कहा, "वे अब तुम्हारी आवाज़ नहीं सुन पाएंगे ना ही देख पाएंगे। तुम्हारा शरीर अब खत्म हो गया है।"
"मतलब मैं मर गयी हूँ!" छोटी रूह आश्चर्य से बोली।
"हाँ। अब तुम्हारा दूसरा जन्म होगा।"
"कब होगा?" छोटी रूह ने उत्सुकता से पूछा।
"पता नहीं...जब ईश्वर चाहेगा तब।"
"आपका… दूसरा जन्म कब..." तब तक छोटी रूह समझ गयी थी कि वह जिससे बात कर रही है वो भी एक रूह ही है।
"नहीं!! मैं नहीं होने दूंगी अपना कोई जन्म।" सुनते ही रूह उसकी बात काटते हुए तीव्र स्वर में बोली।
"क्यूँ?" छोटी रूह ने डर और आश्चर्यमिश्रित स्वर में पूछा।
"मुझे दहेज के दानवों ने जला दिया था। अब कोई जन्म नहीं लूंगी, रूह ही रहूंगी क्यूंकि रूहों को कोई जला नहीं सकता।" वह रूह अपनी मौत के बारे में कहते हुए सिहर गयी थी।
"फिर मैं भी कभी जन्म नहीं लूँगी।"
"क्यूँ?"
छोटी रूह ने भी सिहरते हुए कहा,
"क्यूंकि रूहों के साथ कोई बलात्कार भी नहीं कर सकता।"
Comment
आप सभी आदरणीय सुधीजनों का रचना पर आकर मुझे प्रोत्साहित करने और बेहतर लेखन की राह सुझाने के लिए हृदय से आभारी हूँ। निवेदन है की ऐसे ही स्नेह बनाये रखें। सादर,
बहुत ही संवेदनशील लघु कथा लिखी है आपने.. अंतिम पंक्ति जो किसी भी लघु कथा की जान होती है..अपने आप को चरिथार्त कर रही है..बधाई
मन को छूती भावपूर्ण लघुकथा के लिए बधाई, चंद्रेश जी।
आ. चंद्रेश जी, अच्छी कथा हुयी है । बधाई स्वीकारें ।
हार्दिक बधाई आदरणीय चंद्रेश जी।लाज़वाब लघुकथा।एक बेहतरीन धमाकेदार प्रस्तुति।समाज में बढ़ती महिला अपराधों की संख्या पर करारा प्रहार।
शीर्षक पर भी सकारात्मकता लाई जा सकती है न?
हमेशा की तरह समसामयिक बालिका सरोकार, महिला सरोकार की बेहतरीन सारगर्भित लघुकथा। हार्दिक बधाइयां आदरणीय डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी साहिब। विचारोत्तेजक है। किन्तुु अंत सकारात्मक, निदानात्मक नहीं हो
सका है। सकारात्मक अंत कई बार उपदेशात्मक या आदर्शवादी बन पड़ता. है! यह एक विडम्बना ही है। फिर भी किसी बेहतर अंत के बारे में सोचा जा सकता है मेरे विचार से। सादर।जनाब चन्द्रेश जी आदाब,बहुत उम्दा लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आपने लघुकथा के अंत में मंच के नियमनुसार मौलिक व अप्रकाशित नहीं लिखा?
आदरणीय चंद्रेश जी बहुत ही कसी हुई भावपूर्ण लघुकथा का सृजन हुआ है। वार्ता के अंतिम दौर में यूँ तो दोनों की ही पांच लाइनैं प्रभावी बनी हैं मगर बच्ची की पांच लाइन दिल को लगती है। इस सुंदर लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई।
आदरणीय चंद्रेश छतलानी जी आदाब,
बहुत ही प्रभावोत्पाद और तीव्रता की हद को पार करती लघुकथा । हालाँकि इस तरह की कईं लघुकथाएँ मैं पढ़ चुका हूँ । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
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