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याद की तह से कई भूले फ़साने निकले
आज हम तेरे लिखे ख़त जो जलाने निकले //1
चाहता हूँ मैं तुझे अपनी अना से बढ़कर
इस यकीं तक तुझे लाने में ज़माने निकले //२
ये भी अहसान जताने की नई कोशिश है
ख़त्म जब हो चुका रिश्ता तो मनाने निकले //3
अब कोई इनको बताए कि क़ज़ा क्या शय है
जा चुके छोड़ के दुनिया तो बुलाने निकले //4
जिनने खाई थी क़सम मुझको नहीं देखेंगे
आज काँधे पे मेरी लाश उठाने निकले //5
जो मेरे नाज़ उठाने में नहीं थकते थे
अपने हाथों से मेरी ख़ाक़ उड़ाने निकले //6
हैफ़ क्यों देखना क़ानून की नज़रों से इन्हें
भूख के मारे थे बच्चे जो चुराने निकले //7
छोड़ के पीछे बुजुर्गों की थकी आँखों को
लोग परदेस में दो पैसे कमाने निकले //8
बात ही बात में दिल क़ैद क्या नज़रों में
वो तो मासूम से दिखते थे, सयाने निकले //9
आग बस्ती में ग़रीबों की लगाकर देखो
कितने शातिर हैं ये इंसाँ जो बुझाने निकले //10
ज़िंदगी भर की कमाई भी नहीं काम आई
राज़ गुल्लक से सभी सिक्के पुराने निकले //11
~राज़ नवादवी
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
टंकण की त्रुटी- 'बात ही बात में दिल क़ैद क्या नज़रों में' में क्या की जगह किया पढ़ा जाए. सादर
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ जी, आदाब. सुखन नवाज़ी का दिल से शुक्रिया.
आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब. बताए गए बदलाव के साथ प्रस्तुतु करता हूँ.
सादर
आद0 राज़ नवादवी जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही आपने। कुछ शैर तो यकीनन दिल को छू गए। बधाई स्वीकार कीजिये।
//हिन्दुओं में मृत्यु के पश्चात लाश को नहाने की परंपरा है, मेरा अभिप्रेय इसी से है//
मरने के पश्चात 'नहलाने' की परम्परा हर मज़हब में होती है,'नहाना' और "नहलाना"में बड़ा फ़र्क़ होता है,नहाया या नहाना स्वयं होता है,और जब कोई दूसरा ये अमल करे तो उसे नहलाना कहते हैं,'मैंने उसे नहलाया' 'मुझे नहाना है' उम्मीद है आप समझ गए होंगे ?
आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब. इस्लाह का ह्रदय से आभार. सुझाई गई शुद्धियों का समावेश करता हूँ. 'तुझको इस मोड़तक लाने में ज़माने निकले'- क्या ऐसा कर सकता हूँ? हिन्दुओं में मृत्यु के पश्चात लाश को नहाने की परंपरा है, मेरा अभिप्रेय इसी से है, क्या अब भाव स्पष्ट होगा? ग़ैबत वाले शेर को हटा देता हूँ, मैंने इसका अर्थ ग़ैबी दुनिया या इल्म से समझा था. सादर
जनाब राज़ नवादवी साहिब आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
कुछ बातें आपके संज्ञान में लाना चाहूँगा ।
' तुझको इस बात तक लाने में ज़माने निकले'
इस मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर देखें,इस मिसरे को यों कर सकते हैं:-
'इस जगह तक तुझे लाने में ज़माने निकले'
' हो चुका ख़त्म जब रिश्ता तो मनाने निकले'
इस मिसरे को यों करलें तो गेयता बढ जायेगी:-
'ख़त्म जब हो चुका रिश्ता तो मनाने निकले'
' आज वो लाश मेरी ख़ुद ही नहाने निकले'
इस मिसरे का भाव स्पष्ट नहीं है ।
' जो कि थकते नहीं थे नाज़ उठाने में मेरे'
इस मिसरे को यों करें तो गेयता बढ जायेगी:-
'जो मेरे नाज़ उठाने में नहीं थकते थे'
'बिंदी माथे की, कई रंग की टूटी चूड़ी'
इस मिसरे में शिल्प कमज़ोर है ।
'मुझको देने लगे ग़ैबत की नसीहत भई वाह'
इस मिसरे में "ग़ैबत" का क्या अर्थ है?
बाक़ी शुभ शुभ ।
आ. भाई राजनवादवी जी, एक और सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
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