जर्जर तेरा महल हुआ है
बासी आबोदाना
रूह का पाखी बोल रहा चल
बदलें आज ठिकाना
कोने कोने जाल मकड़िया
ढहने को तैयार दुकड़िया
ईंटें होती नंगी सारी
गारे की भी तंगी भारी
गाटर हुआ पुराना
पसरी आँगन बीच उदासी
जमी हुई हैं सभी निकासी
धूप हवा आती डर डर कर
धीमे धीमे ठहर ठहर कर
संकरा हुआ मुहाना
बंद सुराही जल पीने की
टूटी सब पैड़ी जीने की
खम्बे बम्बे झूल रहे हैं
बोझ उठाना भूल रहे हैं
अब घर नया बसाना
धुँधले सारे चाँद सितारे
टूटी लय टूटे सुर सारे
पूर्ण हुआ जीवन सँगीत रे
दिल की खिड़की खोल
मीत रे
मुझे अभी है जाना
रूह का पाखी बोल रहा चल
बदलें आज ठिकाना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद० लक्ष्मण भैया नवगीत पसंद आई बहुत बहुत आभार आपका
आ. राजेश दी, सादर अभिवादन । सुंदर नवगीत हुआ है । हार्दिक बधाई ।
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