नादान से बच्चे भी हँसते हैं, जब वो ऐसा कहता है
दुनिया का सबसे बड़ा झूठा, खुद को सच्चा कहता है
मुँह उसका है अपने मुंह से, जो कहता है कहने दो
कहने को तो अब वो खुद को, सबसे अच्छा कहता है
चिकने पत्थर, फैली वादी, उजला झरना, सहमे पेड़
लहू से भीगा हर इक पत्ता, अपना किस्सा कहता है
सूखे आंसू, पत्थर आँखें, लब हिलते हैं बेआवाज
लेकिन उन पे जो गुजरी है, हर इक चेहरा कहता है
इस पार मरें उस पार मरें, मरते तो हम-तुम ही हैं
दोनों तरफ इक क़ातिल बैठा, ख़ुद को राजा कहता है
मौलिक/अप्रकाशित
मुतदारिक मख़्बून मुसक्किन महज़ूज़ 16-रुक़्नी( बहरे-मीर का प्रतिबिम्ब)
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा
22 22 22 22 22 22 22 2
Comment
आदरणीय राज़ साहब, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद.
जनाब अजय तिवारी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयोग अच्छा है ,बधाई स्वीकार करें ।
आपकी ग़ज़ल पर चर्चा भी अच्छी हुई है ।
मेरे नज़दीक भी ग़ज़ल में लय(प्रवाह) का होना ज़रूरी है,ग़ज़ल की अपनी नज़ाकत होती है,अरूज़ के नुक़्ते से आपकी बात सहीह है, लेकिन कहा जाता है कि जो अरूज़ के दरया में डूबा उसकी ग़ज़लों से ग़ज़लियत ग़ायब हो जाती है,और आपकी इस ग़ज़ल में अरूज़ के चक्कर में आपको ग़ज़लियत से हाथ धोना पड़ा,इसका अफ़सोस है ।
आदरणीय बलराम जी, हार्दिक आभार,
हमें कथ्य और शिल्प के बीच एक संतुलन बना के चलना होता है. मात्रा गिराने से लय अवश्य प्रभावित होती लेकिन वह पाठ प्रक्रिया द्वारा नियंत्रित कर ली जाती है इसी लिए ये छूट रखी गई है. लेकिन अगर किसी परिवर्तन से मिसरे का कथ्य प्रभावित होता है तो उसकी भरपाई संभव नहीं होती. इसलिए जब तक बह्र नहीं प्रभावित नहीं होती मिसरे के कथ्य से समझौता नहीं करना चाहिए. मतले में ख़ास तौर से सानी को छेड़ कर वही प्रभाव पैदा करना मुश्किल है.
सादर
आदरणीय अजय तिवारी जी, आदाब, शेर दर शेर क़ाबिले तारीफ़. दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ. बाक़ी बह्रो वज्न की बातों के लिए समर साहब की टिप्पणियों का इंतज़ार रहेगा. सादर
आदरणीय निलेश जी, मैं ये स्पष्ट कर चुका हूँ ये मात्रिक बहर नहीं है. इसमें वज़न अरकान के हिसाब से ही देखे जायेंगे.और उस लिहाज़ से ये ठीक है. मात्राएँ वैसे ही गिराई गई हैं जैसे वो गिराई जानी चाहिए.
आदरणीय अजय जी, तक़तीअ करके मेरे ज्ञान में वृद्धि करने के लिए आपका साधुवाद। किन्तु आदरणीय नीलेश जी की बात भी सही प्रतीत हो रही है। अब इस ग़ज़ल में अन्य गुणीजनों की शिरक़त का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।
नवीन प्रयोग हेतु पुनः बधाई स्वीकार करें।
सादर।
आ. अजय जी
मैंने टिप्पणी, अरूज़ अथवा बहर पर नहीं आप के लिखे पर की है..
दिक्कत ये हैं की ग़ज़ल सिर्फ मात्रा पूरी करने से नहीं होती जिसे मानने से आप कतरा रहे हैं..
सिर्फ १६ क्यूँ १८ मात्राओं का मिसरा कह दीजिये और ये भी कह दीजिये कि ६ मात्राएँ गिराई हैं..
अरूज़ नियमों से चलता है,अपने मन से नहीं.
सादर
आदरणीय निलेश जी, अरूज़ नियमों से चलता है,अपने मन से नहीं. इस बह्र का ज़िक्र बहरुल-फ़साहत मे मौज़ूद है. बह्र का आविष्कार मैंने नहीं किया. मैंने सिर्फ उस पर ग़ज़ल लिखने कि कोशिश की है.
पाठक तो साहित्य का भगवान होता है.
सादर
ठीक है आदरणीय,
आप की ग़ज़ल है, आपका प्रयोग है..कहीं भी किसी भी हर्फ़ को अपने मन में गिरा लीजिये..
पाठक का क्या है...
सादर
आदरणीय निलेश जी, हार्दिक धन्यवाद.
बलराम जी के प्रत्युतर में नीचे मैंने तक्तीअ' दी हुई है. बह्र ठीक है.
छोटा-सा बच्चा, प्यारा-सा बच्चा, या नादान-सा बच्चा कहना बिलकुल स्वभाविक है. 'नादाँ बच्चा' मिसरे को निष्प्रभावी कर देगा.
यहाँ अतिरिक्त बल देना है 'सबसे झूठा' से वो बात पैदा नहीं होगी.
ये बहरे मीर नहीं है. बहरे मीर गायन के लिए ज्यादा उपयुक्त है ये तहत मे पढ़े जाने के.
उर्दू में इसका इस्तेमाल ना के बराबर है सिर्फ ज़ौक़ का एक मतला इस बह्र में मिलता है. इस लिहाज़ से यह एक नया प्रयोग भी है.
सादर
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