व्हाट्सएप्प हो या मुखपोथी*
सबके अपने-अपने मठ हैं
दिखते हैं छत्तीस कहीं पर,
और कहीं पर वे तिरसठ हैं
*फेसबुक
रंग निराले, ढंग अनोखे,
ओढ़े हुए मुखौटे अनगिन
लाइक और कमेंट खटाखट,
चलते ही रहते हैं निशदिन
छंद हुए स्वच्छंद सरीखे,
गीत, ग़ज़ल के भी नव हठ हैं
नजर लक्ष्य पर रखते अपनी,
बगुले जैसा ध्यान लगाते
कोई मछली दिखी कहीं पर,
उधर तुरत ही चौंच बढ़ाते
फैलाने को अपनी सत्ता,
हरदम लगनशील कर्मठ हैं
मेरी मुर्गी तीन टाँग की,
हर हालत में सिद्ध कर रहे
भले स्वयं की गागर रीती,
लेकिन सबका कलश भर रहे
आलोचक की जगह नहीं है,
कहते हैं सब लेख सुपठ हैं
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय Samar kabeer जी शुभ प्रभातम, आपकी प्रतिक्रिया का दिल से शुक्रिया, कुछ और तरीके से कोशिश करता हूँ। सादर नमन आपको
आदरणीय PHOOL SINGH जी शुभ प्रभातम, आपकी प हौसलाअफजाई का दिल से शुक्रिया
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,नवगीत अच्छा है लेकिन आप जो कहना चाहते हैं वो पूरी तरह उजागर नहीं हो सका,ख़ैर ! इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
क्या बात है सर जी बहुत सूंदर बधाई
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी शुभ प्रभातम, आपकी हौसलाअफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया
आ. भाई बसंत जी, सुंदर रचना हुयी है । हार्दिक बधाई ।
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