2212 1212 2212 12
अच्छे बुरे का बार है सबके ज़मीर पे
ख़ुद को जवाब देना है नफ़्से अख़ीर पे //१
रख ले मुझे तू चाहे जितना नोके तीर पे
मरने का ख़ौफ़ हो भी क्या दिल के असीर पे //२
कुछ रह्म तो दिखा मेरे शौक़े कसीर पे
पाबंदियाँ लगा न दीदे ना-गुज़ीर पे //३
यकता है इस जहान में क़ुदरत की हर मिसाल
तामीरे ख़ल्क़ मुन्हसिर है कब नज़ीर पे //४
कोई बनाए हुस्न को तेरे भी पाएदार
वरना निशाना क्या लगे हद्फ़े शरीर पे //५
देता है बख्त किसलिए मुझको जहाँ का ग़म
दुनिया का कुछ असर नहीं होता फ़क़ीर पे //६
करना बसर ये ज़िंदगी आसान काम है
इक सीध होके चलना है टेढ़ी लकीर पे //७
बाज़ीचा-ए-अमा से कब तक खेलना है 'राज़'
बरसाए शम्स नूर क्या ज़ुल्मत पज़ीर पे //८
~ राज़ नवादवी
"मौलिक एवं अप्रकाशित
बार- बोझ; नफ़्से अख़ीर- अस्तित्व के आख़िर पे; असीर- बंदी; शौक़े कसीर- खंडित अभिलाषा; ना-गुज़ीर- अपरिहार्य/ आवश्यक/ लाज़िमी; यकता- बेमिस्ल, अद्वितीय; तामीरे ख़ल्क़- सृष्टि का निर्माण; मुनहसिर- निर्भर; नज़ीर- उदाहरण; पाएदार- स्थायी; हद्फ़े शरीर- ऐसा लक्ष्य जो स्थिर न हो, चपल हो; बख्त- भाग्य; बाज़ीचा-ए-अमा- अन्धकार के खिलौने; शम्स- सूर्य; नूर- प्रकाश; ज़ुल्मत पज़ीर- जिसने अँधेरे को स्वीकार कर लिया हो
Comment
आदरणीय सुरखाब बशर साहब, ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफज़ाई का तहेदिल से शुक्रिया. सादर.
जनाब राज नवादवी साहब ग़ज़ल की बहुत उम्दा कोशिश है वाह वाह
आदरणीय लक्ष्मण धामी साहब, ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफजाई का दिल से शुक्रिया, सादर
आ. भाई राजनवादवी जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय सुरेंद्र सिंह साहब, ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफजाई का दिल से शुक्रिया, सादर
आद0 राज़ नवादवी साहब सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही आपने। बधाई स्वीकार कीजिये
बहुत बहुत शुक्रिया जनाब, सादर.
यूँ कर सकते हैं:-
'कुछ रह्म तो दिखा....
आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब. ग़ज़ल में आपकी शिरकत और इस्लाह का तहेदिल से शुक्रिया. बताइ गई भूल को दूर करके रेपोस्ट करता हूँ. सादर.
जनाब राज़ नवादवी साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
' कुछ तो रहम दिखा मेरे शौक़े कसीर पे'
इस मिसरे में सहीह शब्द है "रह्म"21,देख लें ।
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