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नए हालात पढ़ पाए नहीं क्या ।
अभी तुम होश में आए नहीं क्या ।।
उठीं हैं उंगलियां इंसाफ ख़ातिर ।
तुम्हारे ख़ाब मुरझाए नहीं क्या ।।
सुना उन्नीस में तुम जा रहे हो ।
तुम्हें सब लोग समझाए नहीं क्या ।।
किया था पास तुमने ही विधेयक ।
तुम्हारे साथ वो आए नहीं क्या ।।
जला सकती है साहब आह मेरी ।
अभी तालाब खुदवाए नहीं क्या ।।
है टेबल थप थपाना याद मुझको ।
अभी तक आप शरमाए नहीं क्या ।।
यूँ हक़ का द्रौपदी सा चीर खींचे ।
तरस संसद में कुछ खाये नहीं क्या।।
दुशाशन की अभी है जांघ टूटी ।
उन्हें अंजाम दिखलाए नहीं क्या ।।
यहां चाणक्य के बंशज बहुत हैं ।
वो मट्ठा जड़ में डलवाये नहीं क्या ।।
मिटाए जा रहे सदियों से हम तो ।
हमें तुम भी मिटा पाए नहीं क्या ।।
-- डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ. भाई नवीन जी, अच्छी गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
आ0 समर कबीर सर सप्रेम आभार के सादर नमन ।
जनाब डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
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