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बाद मुद्दत खुला मुक़द्दर था ।
मेरी महफ़िल में चाँद शब भर था ।।
देख दरिया के वस्ल की चाहत ।।
कितना प्यासा कोई समंदर था ।।
जीत कर ले गया जो मेरा दिल।
हौसला वह कहाँ से कमतर था ।।
दर्द को जब छुपा लिया मैने ।
कितना हैराँ मेरा सितमगर था ।।
अश्क़ आंखों में देखकर उनके ।
सूना सूना सा आज मंजर था ।।
जंग इंसाफ के लिए थी वो ।
कब ज़माने से मौत का डर था ।।
वो भी पहचान कर गए खारिज़ ।
जिनके दिल में कभी मेरा घर था ।।
क्यों कहूँ दुश्मनों को अब क़ातिल ।
दोस्त के हाथ मे ही ख़ंजर था ।।
मिल गयी है उसे जमानत फिर ।
साफ इल्ज़ाम जिसके सर पर था ।।
यूँ ही जज़्बात आ गए लब तक ।
कह गये जो भी दिल के अंदर था ।।
--डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
क्या कहने आदरणीय एक और खूब ग़ज़ल..बधाई
शुक्रियः सर । कर दिया ।
' मिल गयी है उसे जमानत फिर ।
साफ इल्ज़ाम जिनके सर पर था'
सानी मिसरे में 'जिनके' की जगह "जिसके" कर लें ।
भाई राज नावादवी जी बहुत बहुत शुक्रिया । आपेक्षित सुधार आ0 कबीर साहब की इस्लाह के अनुसार कर दिया गया है ।
आ0 कबीर सर सादर नमन के साथ बहुत बहुत आभार । अत्यंत उपयोगी इस्लाह है सर अभी ठीक करता हूँ ।
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी, आदाब. ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें. बाक़ी आदरणीय समर कबीर साहब ने अपना बहुमूल्य मार्गदर्शन प्रदान किया है. सादर
जनाब डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
' बाद मुद्दत के यह मुक़द्दर था'
इस मिसरे को यूँ कर लें,गेयता बढ़ जाएगी:-
'बाद मुद्दत खुला मुक़द्दर था'
' प्यासा प्यासा कोई समंदर था'
इस मिसरे को यूँ कर लें:-
'कितना प्यासा कोई समंदर था'
' जीत कर ले गया जो मेरा दिल।
इश्क़ का हौसला न कमतर था'
इस शैर में मफ़हूम साफ़ नहीं है ।
' कुछ तो हैराँ मेरा सितमगर था'
इस मिसरे को यूँ कर लें:-
'कितना हैराँ मेरा सितमगर था'
' बेख़ुदी में कदम बढ़े मेरे ।
कब ज़माने से मौत का डर था'
इस शैर का मफ़हूम साफ़ नहीं है ।
' लोग पहचान कर गए खारिज़'
इस मिसरे को यूँ कर लें:-
'वो भी पहचान कर गए ख़ारिज'
' छोड़ कर चल दिया सफर में ही ।
हुस्न जो लाजवाब बेहतर था'
ये शैर हटा दें ।
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