खेल क्या तुम भी सियासी जानते हो ।
कौन कितना है मदारी जानते हो ।।
फैसला ही जब पलट कर चल दिये तुम।।
फिर मिली कैसी निशानी जानते हो।।
हो रहा है देश का सौदा कहीं पर ।
खा रहे कितने दलाली जानते हो।।
मसअले पर था ज़रूरी मशविरा भी ।
तुम हमारी शादमानी जानते हो।।
दांव पर बस दांव लगते जा रहे हैं ।
हो गयी ख़्वाहिश जुआरी जानते हो।।
लोग हैराँ हो रहे हैं देखकर यह ।
तुम सितम की तर्जुमानी जानते हो।।
झपकियों पर क्यूँ उठी हैं उंगलियां ये ।
किस तरह रातें गुज़ारी जानते हो।।
हाले दिल बस पूछते हो बारहा तुम ।
क्यों गिरा आंखों से पानी जानते हो ।।
चन्द उम्मीदों की ख़ातिर सांस जिंदा ।
यार तुम ये बेक़रारी जानते हो ।।
मैं अदा कैसे करूँगा कर्ज कोई।
बेटियां घर में सयानी जानते हो।।
वक्त पर परखा गया वह आदमी जब ।
सारा जुमला है चुनावी जानते हो ।।
-- डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
वाह बढ़िया आदरणीय त्रिपाठी जी..
आदरणीय डॉ नवीन मणि जी यथार्थ को आईना दिखातीबहुत ही सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई
आदरणीय समर कबीर साहब/ नवीन मणि त्रिपाठी जी, मुझे स्पष्टता प्रदान करने के लिए हार्दिक आभार. सादर
आ0 समर कबीर सर सादर नमन के साथ आभार । आ0 राज नावादवी साहब तहे दिल से शुक्रिया । आप से सहमत हूँ । मिसरा बदल दिया ।
रात कैसे है गुज़ारी जानते हो ।।
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इस शेर में चूँकि 'मैंने' या 'हमने' छुपा है, और गुज़ारना' 'रातों' के लिए आया है जो बहुवचन है, मेरे ख़याल से 'गुज़ारी' के बदले 'गुजारीं ' लफ्ज़ आएगा, और उस सूरत क़ाफिया दोषपूर्ण हो जाएगा. क्या मैं सही सोच रहा हूँ?//
सहमत हूँ आपसे ।
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी एवं जनाब समर कबीर साहब, मेरी एक शंका है,
झपकियों पर क्यूँ उठी हैं उंगलियां ये ।
किस तरह रातें गुज़ारी जानते हो।।
इस शेर में चूँकि 'मैंने' या 'हमने' छुपा है, और गुज़ारना' 'रातों' के लिए आया है जो बहुवचन है, मेरे ख़याल से 'गुज़ारी' के बदले 'गुजारीं ' लफ्ज़ आएगा, और उस सूरत क़ाफिया दोषपूर्ण हो जाएगा. क्या मैं सही सोच रहा हूँ? वैसे सुन्दर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई. सादर.
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
बहुत खूब, त्रिपाठी जी बधाई स्वीकारे
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