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लगभग सभी रिश्तेदार अब जा चुके थे, चौथी बाहर दालान में बैठे बैठे खलिहान की तरफ देख रहे थे. आज पिताजी को गुजरे १५ दिन बीत गए थे, तेरही ठीक तरह से निपट गयी थी, गांव घर के लोग भी भोज से संतुष्ट थे. बहनें जाते जाते उसको समझा गयी थीं कि अब तुम्हीं घर के बड़े हो और घर की सारी जिम्मेदारी अब तुम्हारी है. माँ बगल की खाट पर लेटी थी, उधर खलिहान में बंधी काली गईया नांद पर चुपचाप खड़ी थी, उसका मुंह नांद में कम ही जा रहा था.
"क्या पिताजी, आप रोज इस काली गईया को क्यों खाते समय सहलाते हैं. अरे आख़िरकार यह गाय ही है कोई आपकी बिटिया नहीं जिसे इतना लाड़ जताते हैं", वह लगभग रोज ही पिताजी को टोकता था जो इतनी उम्र होने पर भी अपनी आदत नहीं बदले थे. माँ उसे समझाती कि पिताजी की आदत है, जाने दे, तुझे क्यों दिक्कत होती है.
"मुझे तो समझ में नहीं आता इनका यह काम, मेरे बस का नहीं है यह सब", वह माँ से कहता और बाहर निकल जाता. पिताजी उम्र काफी हो जाने के चलते अब घर ही रहते थे और खेती बारी की सभी जिम्मेदारियां वह बखूबी निभा रहा था.
अचानक घुंघरू की आवाज से उसका ध्यान भंग हुआ, काली गईया ने पलट कर घर की तरफ देखा था. उसने बगल में बैठी माँ की तरफ देखा और उठ कर खलिहान की तरफ बढ़ गया. कुछ ही देर बाद वह काली गईया की पीठ सहला रहा था और वह मजे में नांद में मुंह डालकर खा रही थी.
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on December 25, 2018 at 1:15pm

बहुत बहुत आभार आ कल्पना भट्ट जी

Comment by विनय कुमार on December 25, 2018 at 1:14pm

बहुत बहुत आभार आ मुहतरम जनाब समर कबीर साहब

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on December 24, 2018 at 11:09pm

अच्छी लघुकथा हुई है आदरणीय विनय जी हार्दिक बधाई |

Comment by Samar kabeer on December 24, 2018 at 5:02pm

जनाब विनय कुमार जी आदाब,अच्छी लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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