गर मीर* ही न ध्यान रखेगा अवाम का (*नायक )
फिर क्या करे अवाम भी ऐसे निज़ाम का
***
अब तक न याद आई थी उसको अवाम की
क्या रह गया यक़ीन फ़क़त आज राम का
***
दौलत कमाई ख़ूब मगर इतना याद रख-
"बरकत नहीं करे कभी पैसा हराम का "
***
बेकार तो जहाँ में नहीं जिन्स* कोई भी (*वस्तु )
गर्द-ओ-गुबार भी कभी होता है काम का
***
इतने ख़फ़ा हुज़ूर न पहले कभी हुए
भेजा जवाब तक नहीं मेरे सलाम का
***
ख़ुद बेवफ़ा मगर करे उम्मीद प्यार की
बोया जो खार पेड़ उगे कैसे आम का
***
जब तक पियो नहीं तुम्हें कैसे पता चले
साक़ी बग़ैर क्या मज़ा है यार जाम का
***
जो हिज़्र में जला वही ये राज़ जानता
क्या लुत्फ़ यार होता है फ़ुर्क़त की शाम का
***
चाहत है अब बदल क़ज़ा ये पैरहन 'तुरंत'
बस इंतज़ार रह गया तेरे पयाम का
***
गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' बीकानेरी
(मौलिक और अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय Samar kabeer साहेब ,आदाब | अजीम शायर अहमद फ़राज़ साहेब के बारे में कुछ कहने की मेरी औकात तो नहीं है | फिर भी जो मुझे उनकी ग़ज़लों में तक़ाबुले रदीफ़ के उदाहरण लगे उनमें से कुछ पेश कर रहा हूँ | यह सब इसलिए है क्योंकि तक़ाबुले रदीफ़ के बारे में एक शायर ने मुझ से एक दिन यह कहा इसे ऐब नहीं मानते | उसी ने मुझे इस शायर के उदाहरण दिए कुछ और कुछ मैंने बाद में नोटिस किये | आपकी सेवा में पेश इसलिए कर रहा हूँ ताकि यदि ये ऐब की नज़ीर न हों तो मैं भी सावधान रहूँ -
अहमद फ़राज़ साहेब के कुछ शेर --(तक़ाबुले रदीफ़ सहित )
(१)
ख़ुश हो ऐ दिल कि मोहब्बत तो निभा दी तू ने
लोग उजड़ जाते हैं अंजाम से पहले पहले
(२ )
हर घर का दिया गुल न करो तुम कि न जाने
किस बाम से ख़ुर्शीद-ए-क़यामत निकल आए
***
जो दरपय-ए-पिंदार हैं उन क़त्ल-गहों से
जाँ दे के भी समझो कि सलामत निकल आए
(३)
फ़क़ीह-ए-शहर की मज्लिस नहीं कि दूर रहो
ये बज़्म-ए-पीर-ए-मुग़ाँ है क़रीब आ जाओ
(४)
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
**
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
***
सुना है उस के लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पे इल्ज़ाम धर के देखते हैं
***
रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं
चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं
(५ )
आबाद कू-ए-चाक-ए-गरेबाँ जो फिर हुआ
दस्त-ए-रक़ीब ओ दामन-ए-अहबाब देखना
(६)
ऐसी कुछ चुप सी लगी है जैसे
हम तुझे हाल सुनाने आए
(७)
कुछ तो वो हुस्न पशेमाँ है जफ़ा पर अपनी
और कुछ उस के लिए दिल था कुशादा यूँ भी
(८)
जहाँ नासेहों का हुजूम था वहीं आशिक़ों की भी धूम थी
जहाँ बख़िया-गर थे गली गली वहीं रस्म-ए-जामा-दरी रही
(९ )
क्या लोग थे कि जान से बढ़ कर अज़ीज़ थे
अब दिल से महव नाम भी अक्सर के हो गए
(१०)
नासेहा तुझ को ख़बर क्या कि मोहब्बत क्या है
रोज़ आ जाता है समझाता है यूँ है यूँ है
(११)
हम ख़ुल्द से निकल तो गए हैं पर ऐ ख़ुदा
इतने से वाक़िए का फ़साना बहुत हुआ
***
अब तक तो दिल का दिल से तआ'रुफ़ न हो सका
माना कि उस से मिलना मिलाना बहुत हुआ
(१२)
ऐ ज़ूद-फ़रामोश कहाँ तू है कि तुझ से
मेरे तो शब-ओ-रोज़ मह-ओ-साल बंधे थे
**
वो रश्क-ए-ग़ज़ालाँ था मगर दाम में उस के
हम जैसे कई सैद-ए-ज़बूँ-हाल बंधे थे
**
यूँ दिल तह-ओ-बाला कभी होते नहीं देखे
इक शख़्स के पाँव से तो भौंचाल बंधे थे
**
(१३ )
जो भी मिला उसी का दिल हल्क़ा-ब-गोश-ए-यार था
उस ने तो सारे शहर को कर के ग़ुलाम रख दिया
(१४)
अक़्ल हर बार दिखाती थी जले हाथ अपने
दिल ने हर बार कहा आग पराई ले ले
(१५)
तितली के तआक़ुब में कोई फूल सा बच्चा
ऐसा ही कोई ख़्वाब हमारा भी कभी था
**
हर बज़्म में हम ने उसे अफ़्सुर्दा ही देखा
कहते हैं 'फ़राज़' अंजुमन-आरा भी कभी था
(१६)
तमाम दौलत-ए-जाँ हार दी मोहब्बत में
जो ज़िंदगी से लिए थे उधार क्या उतरें
**
हमें मजाल नहीं है कि बाम तक पहुँचें
उन्हें ये आर सर-ए-रहगुज़ार क्या उतरें
अहमद 'फ़राज़' का कोई ऐसा शैर बताएं जिसमें तक़ाबुल-ए- रदीफ़ हो,उसके बाद मैं इस ऐब के बारे में कुछ कहूँगा ।
जनाब Samar kabeer साहेब ,आदाब ,आपने सही फ़रमाया | दरअसल तक़ाबुले रदीफ़ ऐब है ही ऐसा कि लिखते समय यह छूट ही जाता है कोई ध्यान दिलाये तभी पता चलता है ,इसीलिये अहमद फ़राज़ जैसे कई शायर इसे ऐब मानते ही नहीं ,कृपया इस शेर को इस प्रकार पढेँ - जो हिज़्र में जला वही वाक़िफ़ है राज से /क्या लुत्फ़ यार होता है फ़ुर्क़त...
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
' जो हिज़्र में जला वही ये राज़ जानता
क्या लुत्फ़ यार होता है फ़ुर्क़त की शाम का'
इस शैर के ऊला मिसरे को आप चाहते तो इस अंदाज़ में भी कह सकते थे कि तक़ाबुल-ए-रदीफ़ का ऐब निकल जाता ।
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