उस देश धरा पर जन्म लिया, मकरंद सुप्रीति जहाँ छलके।
वन पेड़ पहाड़ व फूल कली, हर वक़्त जहाँ चमके दमके।
वसुधा यह एक कुटुम्ब, जहाँ, सबके मन भाव यही झलके
सतरंग भरा नभ है जिसका, उड़ते खग खूब जहाँ खुलके।।1।।
अरि से न कभी हम हैं डरते, डरते जयचंद विभीषण से।
मुख से हम जो कहते करते, डिगते न कभी अपने प्रण से
गर लाल विलोचन को कर दें, तब दुश्मन भाग पड़े रण से
यदि आँख तरेर दिया अरि ने, हम नष्ट करें उनको गण से।।2।।
हम काल बनें विकराल बनें, निकलें जब भी अरिमर्दन को।
रण में अरि देख भुजा फड़के, कर दें क्षण में हत दुर्जन को।
फन काढ़ खड़े रण में अरि जो, पल में कुचलें उनके फन को।
हम शावक विघ्न मिटा पथ के, चरितार्थ करें निज जीवन को।।3।।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आद0 फूल सिंह जी सादर अभिवादन। रचना पसंद करने के लिए कोटिश आभार
"सुरेंदर भाई " बहुत अच्छा वीररस के ओतप्रोत रचना के लिए बधाई स्वीकारें
आद0 विजय निकोर जी सादर आभार
अति सुन्दर प्रस्तुति। बधाई श्री सुरेन्द्र नाथ सिंह जी
आद0 समर कबीर साहब सादर प्रणाम। आपका आशीष पाकर रचना धन्य हुई, सादर आभार।
शिल्प भी लिखने का पूरा प्रयास करूँगा,, चाहता भी हूँ पर कभी कभी पोस्ट करते समय भूल जाता हूँ। वैसे इसका शिल्प
सगण×8, चार सगण के बाद यति और चारों पंक्तियों में तुकांतता समान।
जनाब सुरेन्द्र नाथ सिंह जी आदाब, दुर्मिल सवैया छन्द में अच्छी रचना हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
जब कोई छन्द रचना पोस्ट करें तो उसके साथ उसका विधान भी लिख दिया करें,जिससे नए सीखने वालों को आसानी हो ।
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