तुम्हारी अगुवानी में....
ज़रा ठहरो
मुझे पहले
तुम्हारी अगुवानी में
इन कमरों की बंद खिड़कियों को
खोल लेने दो
जब से तुम गए हो
हवा ने भी आना छोड़ दिया
अब तुम आये हो तो
साँसों को
ज़िंदगी का मतलब
समझ आया है
ज़रा ठहरो
पहले मुझे
तुम्हारी अगुवानी में
मन की दीवारों से
सारी उलझनों के जाले
उतार लेने दो
ताकि तुम्हें
बाहर जैसी खुली हवा का
अहसास दिला सकूं
इन घर की दीवारों में
ज़रा ठहरो
पहले मैं तुम्हारी अगुवानी में
मन पर जमी
यादों की सीलन को
हटा लूँ
ढके दर्पण पर
जमी धुल का धुंधलका हटा लूँ
तुम्हारी याद के
अस्त-व्यस्त पन्नों को
मन में समेट लूँ
आँखों में उदासी के हर मंज़र को
कहीं दूर दफ़ना दूँ
अपने ज़िस्म की चादर को
तुम्हारे शयन कक्ष में
बिछा दूँ
ताकि
तुम
लौट आओ
रोज
अपने घर
जाकर भी
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सतविन्द्र कुमार राणा जी सृजन पर आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभार।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन पर आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब , सृजन पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का तहे दिल से शुक्रिया।
बेहतरीन बेहतरीन! हार्दिक बधाई आदरणीय सुशील सरना जज
आ. भाई सुशील जी,सुंदर कविता हुयी है । हार्दिक बधाई ।
जनाब सुशील सरना जी आदाब,अच्छी कविता हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
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