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तुम्हारी अगुवानी में

तुम्हारी अगुवानी में.... 

ज़रा ठहरो
मुझे पहले
तुम्हारी अगुवानी में
इन कमरों की बंद खिड़कियों को
खोल लेने दो
जब से तुम गए हो
हवा ने भी आना छोड़ दिया
अब तुम आये हो तो
साँसों को
ज़िंदगी का मतलब

समझ आया है

ज़रा ठहरो
पहले मुझे
तुम्हारी अगुवानी में
मन की दीवारों से
सारी उलझनों के जाले
उतार लेने दो
ताकि तुम्हें
बाहर जैसी खुली हवा का
अहसास दिला सकूं
इन घर की दीवारों में

ज़रा ठहरो
पहले मैं तुम्हारी अगुवानी में
मन पर जमी
यादों की सीलन को
हटा लूँ
ढके दर्पण पर
जमी धुल का धुंधलका हटा लूँ
तुम्हारी याद के
अस्त-व्यस्त पन्नों को
मन में समेट लूँ
आँखों में उदासी के हर मंज़र को
कहीं दूर दफ़ना दूँ
अपने ज़िस्म की चादर को
तुम्हारे शयन कक्ष में
बिछा दूँ
ताकि
तुम
लौट आओ
रोज
अपने घर
जाकर भी

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on January 31, 2019 at 4:20pm

आदरणीय सतविन्द्र कुमार राणा जी सृजन पर आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभार।

Comment by Sushil Sarna on January 31, 2019 at 4:19pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन पर आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभार।

Comment by Sushil Sarna on January 31, 2019 at 4:18pm

आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब , सृजन पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का तहे दिल से शुक्रिया।

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on January 28, 2019 at 7:10am

बेहतरीन बेहतरीन! हार्दिक बधाई आदरणीय सुशील सरना जज

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 28, 2019 at 7:00am

आ. भाई सुशील जी,सुंदर कविता हुयी है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Samar kabeer on January 24, 2019 at 11:16pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब,अच्छी कविता हुई है,बधाई स्वीकार करें ।

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