इतनी सी बात थी ....
एक शब के लिए
तुम्हें माँगा था
अपनी रूह का
पैरहन माना था
मेरी इल्तिज़ा
तुम समझ न सके
तुम ज़िस्म की हदों में
ग़ुम रहे
मेरा समर्पण
तुम्हारी रूह पर
दस्तक देता रहा
लफ्ज़
अहसासों की चौखट पर
दम तोड़ते रहे
रूह का परिंदा
करता भी तो क्या
हार गया
दस्तक देते -देते
उल्फ़त की दहलीज़ पर
तुम
समझ न सके
बे-आवाज़ जज़्बात को
ज़िस्म की हदों में कहाँ
उल्फ़त के अक़्स होते हैं
तुम चले गए
अश्क
रक्स करते रहे
मैं तमाम शब्
साथ होकर भी
अकेली थी
तुम्हारे लबों के लम्स
लबों पे
रेंगते रहे रेंगते रहे
तुम बेख़बर रहे
मेरी रूह की ख़्वाहिश से
तुम मेरी रूह का
पैरहन न बन सके
तमाम शब् के बाद भी
तुम
इतनी सी बात भी
न समझ सके
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Samar kabeer जी सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।
जनाब सुशील सरना जी आदाब,अच्छी कविता हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आ. भाई सुशील जी, बेहतरीन रचना हुयी है । हार्दिक बधाई ।
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